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________________ श्लोक-वार्तिक ___ "तद्भावाव्ययं नित्यं" प्रत्यभिज्ञान के हेतु होरहे वह के वही भाव करके व्यय नहीं होते रहने को नित्य कहा जाता है । ये धर्म आदिक द्रव्य "तदेव इदम्" इस प्रत्यभिज्ञान के हेतु-भूत सहभावी गुणों करके या पर्याय और गुणों के अविष्वरभाव पिण्डस्वरूप करके व्यय को प्राप्त नहीं होते हैं, नित्य शब्द ध्रुवपन का कथन कर रहा है " रिगञ प्रापरणे" धातु से अव अर्थ में त्य प्रत्यय कर नित्य शब्द बना लिया जाता है, सदानियत संख्यावाले इतने परिमाणका उल्लंघन नहीं करने से ये द्रव्य अवस्थित कहे जाते हैं । ये द्रव्य अपने नियत प्रदेशों की संख्या का भी उल्लंघन नहीं करते हैं । इन द्रव्यों में रूप गुण विद्यमान नहीं है इस कारण ये अरूप माने जाते हैं। यहां कोई पूछता है कि वे धर्मादिक द्रव्य इस प्रकार उक्त तीन विधेय दलों से किस प्रकार विहित समझे जांय ? ऐसी जिज्ञासा होने पर ग्रन्थकार उत्तर वात्तिकों को कहते द्रव्यार्थिकनयात्तानि नित्यान्येवान्वितत्वतः। अवस्थितानि सांकर्यस्यान्योन्यं शश्वदस्थितेः ॥ १॥ ततो द्रव्यांतरस्यापि द्रव्यषट्कादभावतः। तत्पर्यायानवस्थानान्नित्यत्वे पुनरर्थतः ॥२॥ द्रव्याथिकनय से धर्म प्रादिक ( पक्ष ) नित्य ही हैं ( साध्य ) तीनों कालसम्बन्धी गुण और पर्यायों के पिण्ड में परस्पर अन्वय बन चुका होने से ( हेतु ) इस अनुमान द्वारा धर्मादिकों को नित्य साध दिया गया है तथा धर्मादिक द्रव्य ( पक्ष ) अवस्थित हैं ( साध्य ) सर्वदा परस्पर में संकरपन की स्थिति नहीं होने से ( हेतु ) अर्थात्-एक दूसरे से न्यारे वर्त रहे ये द्रव्य परस्पर में मिल कर अपनी सत्ता को नहीं खो वैठते हैं और मिल मिलाकर अतिरिक्त द्रव्यों को नहीं उपजा लेते हैं, अपने अपने अगुरुलघु गुण द्वारा अन्यूनानतिरिक्त होकर अवस्थित रहते हैं, तिसी कारण छह द्रव्यों से अतिरिक्त अन्य द्रव्योंका अभाव है। द्रव्याथिक नय अनुसार परमार्थ रूपसे नित्य या अवस्थित होनेपर यह बात विना कहे ही निकल आती है कि पर्याय-दृष्टि से वे धर्म आदिक अनित्य और अनवस्थित हैं इतर व्यावृत्ति या अतिव्याप्ति का निवारण करने पर ही विशेषण लगाना सफल समझा जाता है। धर्मादीनि व्याख्यातानि पंच वक्ष्यमाणेन कालेन सह षडेव द्रव्याणि । तान द्रव्याथिकनयादेशादेव नित्यानि, निर्वाधान्वितविज्ञानविषयत्वान्यथानुपपत्तेः । तत एवावस्थितानि तेषामन्यान्यसांकर्यस्याव्यवस्थानात् सर्वदा सप्तमद्रव्यस्याभावाच्चेति सूत्रकारवचनात् । पर्यायार्थादेशादनित्यानि तान्यन स्थितानि चेति सामर्थ्यादवगम्यते । धर्म प्रादिक पांच द्रव्यों का व्याख्यान किया जा चुका है काल द्रव्य को सूत्रकार आगे कहने वाले हैं यों ये पांच काल के साथ मिलकर छह ही द्रव्य हैं । वे छह द्रव्य द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा कथन कर देने से ही नित्य हैं क्योंकि अन्वितपने के वाधारहित विज्ञान का विषयपना अन्यथा यानी नित्य माने विना बन नहीं सकता है। तिस ही कारण यानी व्यार्थिक नय अनुसार ये द्रव्य अवस्थित हैं,
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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