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________________ पंचम अध्याय तानि पुन: वे द्रव्य फिर कैसे हैं ? इस प्रश्न के अनुसार द्रव्यों की विशेष प्रतिपत्ति कराने के लिये सूत्रकार अगले सूत्र को कहते हैं । नित्यावस्थितान्यरूपाणि ॥ ४ ॥ धर्म श्रादिक द्रव्य नित्य हैं अर्थात्-तीनों कालों में वर्त रहे सन्ते कभी नष्ट नहीं होते हैं । पर्यायों का नाश भले ही होजाय किन्तु परिणामी द्रव्य सदा विद्यमान रहते हैं । यदि द्रव्य ही नाश को प्राप्त होने लगते तो संसार में कभी का शून्यवाद छाजाता और यह चराचर जगत् देखने में नहीं आता । तथा धर्म आदिक द्रव्य अवस्थित हैं अर्थात् अपने नियत संख्या के परिमाण का उल्लंघन नहीं करते हैं द्रव्य जितने हैं उतने ही रहते हैं, न एक घटता है और न एक बढ़ता है । सत् का विनाश नहीं होता है और असत् का उत्पाद नहीं होता है, धर्म द्रव्य एक है, अधर्म द्रव्य एक है, आकाश द्रव्य भी एक है, काल द्रव्य असंख्यातासंख्यात हैं, जीव द्रव्य स्वतंत्र होरहे अनन्तानन्त हैं, जीवों से ग्रनन्त - गुणे पुद्गल द्रव्य हैं ये सब संख्यायें नियत हैं, कोई पोल नहीं है जैसे कि मोहमद ( मुहम्मद) के अनुसार चाहे जितनी आत्मायें ( रूयें ) उपजा ली जाती हैं और चाहे जिनको नष्ट कर दिया जाता है । ata भी नियत संख्यावाले नित्य द्रव्योंको नहीं मानकर स्व-लक्षणों को क्षरण-ध्वंसी ध्वन्सी स्वीकार कर बैठे हैं। बात यह है कि द्रव्य तो अवस्थित हैं ही अन्य भी गुण, पर्याय, अविभागप्रतिच्छेद, स्वभाव, जिसके जिन जिन निमित्तों द्वारा जैसे जैसे कालत्रय में होने योग्य हैं वे भी सव प्रतिनियत हैं सर्वज्ञ के ज्ञान में जैसा जिसका परिणमन झलका है रेफमात्र उससे न्यून अधिक नहीं होसकता है । भोले लोग कह देते हैं कि दाने दाने पर छाप पड़ी हुयी है, हम कहते हैं कि दानों पर ही क्या सम्पूर्ण पृथिवी, जल, वायु, जीव, कालाणु, लोहा, चांदी, रेत, मल, बूरा, काठ, अक्षर, आदि सभी पर अपने अपने नियत स्वभावों की छाप पड़ी हुयी हैं, सर्वत्र कथंचित् भेद केवलान्वयी होकर श्रोत पोत घुस रहा है, गेंहू के एक दाने के हजारों एक एक एक चून के टुकड़ों पर और एक एक टुकड़े के अनन्त परमाणु पर तथा एक परमाणु द्रव्य के अनन्तानन्त गुणों पर एवं एक एक गुणकी अनन्त पर्यायों पर तथैव एक एक पर्याय अनन्तानन्तप्रविभाग - प्रतिच्छेदों या स्वभावों पर छाप लग रही है "जं जस्स जम्हि देसे जेन विहारण जम्हि कालम्मि" इत्यादि ग्रन्थ करके श्री कार्तिकेय स्वामी ने बहुत अच्छा सिद्धान्त कर दिया है । एवं ये उक्त द्रव्य सभी रूपसे रहित हैं। रूपके कहने में उसके अविनाभावी रस प्रादिका भी ग्रहण होजाता है। भविष्य ग्रन्थ में अकेले पुद्गल को ही रूपी द्रव्य कह देंगे । अतः उससे शेष रहे द्रव्यों को रूपरहित समाजाय । तद्भावाव्ययानि नित्यानि नित्यशब्दस्य धौन्यवचनत्वात् सर्वदेयत्ता निवृत्ते व स्थितानि, न विद्यते रूपमेवेत्रित्यरूपाणि कुतस्तान्येत्रमित्याह । ४
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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