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________________ २८ श्लोक-बातिक और जगत् की चमत्कार चित्र, विचित्र, परिणतियां अनादि से अनन्त काल तक हो रही हैं। प्रतः पर्यायों को अनवस्थित कहना समुचित ही है, नियत कारणोंसे ही प्रतिनियत पर्यायें ही बनेंगी जैसा कि सर्वज्ञ ज्ञान में झलक रहा है, इस दृष्टि से पर्यायों को अवस्थित कह देना भी बुरा नहीं है - "अपितानर्पितसिद्धेः, तीन काल के जितने भी अक्षय अनन्तानन्त समय हैं उतने ही तो एक द्रव्य या एक एक गुण के अनन्तानन्त परिणाम होंगे और अधिक क्या चाहते हो ? ___ एतेन क्षणिकान्येव स्वलक्षणानि द्रव्याणौति दर्शनं प्रत्यारुय तं,प्रगणतः प्रकृनद्रव्याणां नित्यत्वसिद्धेरन्यत्र प्रतीत्यभावात् । स्थैकमेव द्रव्यं सन्मानं प्रधानाधनमेव वा नाना द्रव्याणां तत्रानुप्रवेशात् । परमार्थतोऽनास्थितानि त नीत्यपि मतमपारतं प्रति ियतलक्षणभेदात्सर्वदा तेषामवस्थितत्वमिद्धेः। द्रव्यों का नित्यपन और पर्यायों का अनित्यपन समझाने वाले इस कथन करके बौद्धों के इस दर्शन का प्रत्याख्यान कर दिया गया है कि स्वलक्षण ही द्रव्य हो रहे क्षणिक ही हैं। . अर्थात्-बौद्धों ने असाधारण, क्षणिक, परमाणु स्वरूप, स्वलक्षणों को ही द्रव्य माना है जो कि प्रत्येक क्षण में ठहरकर दूसरे क्षण में समूल-चूल नष्ट हो जाते स्वीकार किये हैं, प्राचार्य कहते हैं कि प्रकरण-प्राप्त धर्म आदिक द्रव्यों के नित्यपन की प्रमाणों से सिद्धि हो रही है, अन्य स्वलक्षण, चित्राद्वत, आदि में प्रतीति होने का अभाव है, अतः बौद्ध दर्शन का प्रत्याख्यान हो जाता है। तथा अद्वत-वादियों ने एक ही केवल सत्--स्वरूप परमब्रह्म को द्रव्य माना है। अथवा कपिलों ने प्रकृतिका अद्वत ही अचेतन द्रव्य स्वीकार किया है, अन्यमतियों ने भी ज्ञानादत, शब्दावन आदि स्वीकार किये हैं। अद्वैतवाद अनुसार अनेक द्रव्यों का उस अद्वैत में ही विचार करने के पीछे प्रवेश हो जाना माना है। ग्रन्थकार कहते हैं कि द्रव्य-रूप से नित्य और पर्याय-रूप से अनित्य करने वाले इस प्रकरण से इन सबका निराकरण कर दिया जाता है, साथ में इस मत का भी खण्डन किया जा चुका समझो कि "वे द्रव्य वास्तविकरूप से अनवस्थित हैं" जब कि प्रत्येक में नियत दोरहे लक्षणों के भेद से सदा उन द्रव्यों का अवस्थितपना सिद्ध है, तो वे द्रव्य अनवस्थित कथमपि नहीं हैं, पर्यायें भले ही अनवस्थित रहो। अथारूपाणीति कि सामान्यतो वाविशेषतोऽभिधीयत इत्याशंकमानं प्रत्याह । अब कोई शिष्य अच्छी आशंका कर रहा है कि सूत्रकार ने जो "अरूपाणि" कहा है वह क्या सामान्य रूपसे कहा गया. है ? अथवा क्या विशेष रूप से धर्मादिकों को रूपरहित कहा गया है ? इस प्रकार अाशंका करने वाले के प्रति ग्रन्थकार वात्तिक द्वारा समाधान को कहते हैं अरूपाणीति सामान्यादाह न स्वपवादतः। रूपित्ववचनादने पुद्गलानां विशेषतः ॥३॥
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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