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________________ पंचम-अध्याय ४१५ __ तत्र द्रव्याश्रया इति विशेषणवचनाद्रुणानां किमवसीयत इन्युच्यते । उस गुण के प्रतिपादक लक्षण सूत्र में "द्रव्याश्रया,, इस विशेषण का कथन करने से गुणों का क्या स्वरूप निरिणतकर लिया जाता है ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार करके अगली वात्तिक द्वारा यह समाधान कहा जा रहा है उसको सुनिये । द्रव्याश्रया इति ख्यातेः सूत्रेस्मिन्नवसीयते गुणाश्रया गुणत्वाद्या न गुणाः परमार्थतः ॥१॥ इस सूत्रा में "द्रव्याश्रया" इस विशेषण का प्रकृष्ट कथन करने से यह निर्णीत कर लिया है कि गुणों के आश्रित होरहे गुणत्व, रूपत्व, द्रव्याश्रयत्व, प्रादि स्वभाव तो वास्तविक रूप से गुण नहीं हैं क्योंकि वे स्वभाव गुरणों के आश्रित हैं और सूत्रकार ने द्रव्य के आश्रित होरहे को गुण कहा है अतः अतिव्याप्ति दोष टल जाता है । न हि गुणत्व सर्वज्ञज्ञयत्वधर्मा गुणाश्रया गुणा शक्यव्यवस्थाः, परमार्थतस्तेषां कथंचिगणेभ्योना तरतया गुणत्वोपचारात् । तत्वतस्तेषां गुणत्वे गुणानां द्रव्यत्वप्रसंगाद्रुणगुणभावव्यवहारावस्थितिविरोधात् । जिनके आश्रय गुण हैं वे गुणत्व या सर्वज्ञ भगवान करके जानने योग्यपन आदि धर्म भी गुण होजाय यह व्यवस्था नहीं की जा सकती है क्योंकि गुणों के उन धर्मों का परमार्थ रूप करके गुणों से कथंचित् अभेद होजाने के कारण गुणपन का उपचार होरहा है यदि वास्तविक रूप से उन धर्मों को गुणपना इष्ट कर लिया जायगा तो गुणों को द्रव्य हा जाने का प्रसंग पाजावेगा क्योंकि जैसे गुणत्व गुण में है उसी प्रकार गुण द्रव्य में है। और ऐसा होजाने से गुणगुणीभाव के व्यवहार की व्यवस्था वनी रहने का विरोध होजावेगा । अर्थात्-द्रव्य गुणी है और उसके रूप, चेतना, आदिक परिणामी गुण है यह नियत व्यवस्था है यदि गुणों में ठहर रहे स्वभावों का और उनमें भी ठहर रहे अन्य अनेक अपरिणामी धर्मों को गुण कह दिया जायगा तो गुण गुणो भाव का व्यवहार तात्त्विक रूप से नहीं टिक सकेगा। गुणवाला द्रव्य होता है जव कि गुणत्व धर्म भो गुण हो जायगा तब तो गुणत्व धर्म वाला गुण विचारा द्रव्य बन वैठेगा जो कि इष्ट नहीं है। द्रव्येस्षुि गुणास्तदुपचरिता एव भवंतु विशेषाभावादित्ययुक्त, क्वचिन्मुख्यगुणाभावे तदुपचारायोगात् । तती द्रव्याश्रया इति वचनादद्रव्याश्रयाणां गुणत्वादोनां गुणत्व व्यवर्तितमदसीयते । यदि यहाँ कोई यह शंका करे कि जैसे गुणां में पाये जारहे गुणत्व, रूपत्व, आदि धर्मों को उपचार से गुणपना है उसी प्रकार द्रव्यों में ठहर रहे मुख, रूप, आदि गुण भो उपचरित ही होजामो
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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