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श्लोक- वार्तिक
क्योंकि गुणों में ठहर रहे वे धर्म गुणों के स्वभाव हैं उसी प्रकार द्रव्यों में ठहर रहे गुण भी द्रव्यों के स्वभाव हैं कोई अन्तर नहीं है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह कहना तो युक्ति रहित है क्योंकि कहीं पर भी मुख्य गुणों को माने विना उनका अन्यत्र उपचार करने का प्रयोग है ।
प्रसिद्ध अग्नि का नटखटी, चंचल, वालक में उपचार किया जा सकता है अप्रसिद्ध अश्वविषारण का कहीं भी उपचार होना नहीं देखा जाता है तिस कारण " द्रव्याश्रया, इस वचन द्रव्य प्राश्रित नहीं हो रहे गुणत्व, रसत्व, ज्ञयत्व आदि के गुणपन की व्यावृत्ति की जा चुकी निर्णीत हो जाती है ।
निर्गुणा इति वचनात् किं क्रियते इत्याह
यहां कोई जिज्ञासु पूछता है कि सूत्रकार ने निगुंरंगा इस पद का प्रयोग करने से क्या पदकृत्य किया है ? बताओ इस प्रकार आकांक्षा प्रवतने पय ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिक द्वारा इसका समाकरते हैं ।
निर्गुण इति निर्देशात्कार्यद्रव्यस्य वार्यते ।
गुणभावः परद्रव्या श्रयिणोपीति निर्णयः ॥ २ ॥
इस सूत्र
में " निर्गुण " ऐसा कथन करने से घट. पट, आदि कार्य द्रव्यों के गुणपन का निवारण कर दिया जाता है । भले ही वे कार्य द्रव्य अपने कारण होरहे दूसरे द्रव्यों के आश्रित हो रहे हैं तो भी वे घटादिक पदार्थ गुरणसहित है अतः गुरण का पूरा लक्षण घटित नहीं होने से कार्य द्रव्य में प्रतिव्याप्ति नहीं हुई । अर्थात् - जैसे गुणों से रहित हो रहे भी गुणत्व प्रादि की " द्रव्याश्रया " कह देने से व्यावृत्ति होजाती है उसी प्रकार स्वकीय कारण द्रव्यों के श्राश्रित हो रहे भी कार्य द्रव्यों का पना इस निपद के कथन से निवारित होजाता है लक्षण के घटका वयव हो रहे पदो का लक्ष्य स्वरूप का निर्देश करना तो गौण फल है हा इतर लक्ष्यों की व्यावृत्ति करना उनका प्रधान फल है । द्रव्याश्रया गुणा इत्युच्यमाने ही परमाणु द्रव्याश्राणां ह्य्णुकादिकायद्रव्याणां गुणत्वं प्रसज्येत तन्निर्गुणा इति वचनाद्वेनिवार्यते तेषां गुणित्वेन द्रव्यत्वमिद्धः
" द्रव्याश्रयागुणाः” द्रव्य के जो प्रश्रित हो रहे हैं वे गुण हैं इतना ही यदि गुणों के प्रतिपादक लक्षण सूत्र का कथन किया जाना माना जायगा तब तो परमाणु द्रव्यों के आश्रित हो रहे ध्वरक, त्र्यणुक, आदि द्रव्यों के गुणपन का प्रसंग अवश्य होजावेगा । किन्तु सूत्रकार करके "निगुंग” ऐसा कण्ठोक्त पद प्रयोग कर देने से उस प्रसंग का विशेष रूपेण निवारण कर दिया गया है क्योंकि वे द्वणूक, त्र्यणक, घट, पट, ग्राम, अमरूद, आदि कार्य द्रव्यों को तो रूप, रस आदि गुणों से सहित होने के कारण द्रव्यपना सिद्ध है जो की "गुमपर्ययवव्थं" इस सूत्र से प्रसिद्ध कर दिया गया हैं अतः ध्वरतक आदि द्रव्य विचारे निर्गुण नहीं हैं गुणवान् हैं अतः गुण के लक्षण में प्रतिव्याप्ति दोष नहीं हुआ ।