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श्लोक-वार्तिक
न्य को इष्ट नहीं करते हैं वे 'विशेषा एव तत्वं' मान बैठे हैं वौद्ध ही विशेषों को स्वीकार करते हुये सामान्यका प्रत्याख्यान करते हैं।
अतः अनेक मत का व्यवच्छेद करने के लिये वैशेषिकों को द्रव्य के लक्षण में 'सामान्यवन' (सामान्यवाला ) कहना आवश्यक पड़ जायगा यों १ 'न कार्यद्रव्यवत्कारणद्रव्यं' २ 'न विशेषवद्रव्यं' ३ 'न सामान्यवद्रव्यं' इस प्रकार दूसरों के अभीष्ट किये गये मन्तव्यों अनुसार द्रव्य में पड़ी हुयी विप्रतिपत्तियों का निराकरण करने के लिये 'द्रव्य वविशेषवत्सामान्यवच्च द्रव्यं यों द्रव्य का लक्षण वैशेषिकों को करना चाहिये था वैशेषिकों ने कारण द्रव्यों में कार्य द्रव्य का रहना और नित्य द्रव्यों में बिशेषपदार्थ का ठहरना तथा सम्पुर्ण दव्यों में सामान्य जाति का स्थित रहना अभीष्ट भी किया है अतः इस लक्षण करके वैशेषिकों के यहां स्वकीय सिद्धान्त से कोई विरोध नहीं पड़ सकता है, द्रव्य का क्रिया रहितपना या समवायिकारण रहितपना मानने वाले पण्डितों को समझाने की अपेक्षा कारण द्रव्य को कार्य द्रव्य से रहित मान रहे और द्रव्य को विशेष या सामान्य से रहित अभीष्ट कर रहे पण्डितं मन्यों को समीचीन मार्ग पर लेगाना कहीं अच्छा है द्रव्य के द्रव्य सहितपन और विशेषसामान्य सहितपन की प्रतीति होचुकने पर पुन: झटिति अल्प प्रयास से ही द्रव्य के क्रियासहितपन गुण सहितपन और समवायि कारण पन की प्रतिपत्ति होजायगी।
एक बात यह भी है, कि 'क्रियावद गुणवत्समवायिकारणं द्रव्यं' स्वीकार कर पुन: 'द्रव्यवद्विशेषवत्सामान्यवच्च' इस लक्षण का भी प्रसंग प्राप्त होजाने पर वैशेषिकों के ऊपर विनिगमनाविरह दोष खड़ा होजाता है इस दोष की यह शक्ति है कि 'सुन्दोपसुन्द न्याय' अनुसार दोनों का निराकरण कर तीसरे ही शक्तिशाली लक्षण को सर्वोपरि विराजमान कर देता है, तभी तो स्याद्वादियों ने द्रव्य का 'गुणपर्यय वद्रव्यं' यह निर्दोष लक्षण किया है, स्याद्वादियों के यहां फिर बड़ा सुभीता पड़ जाता है, क्योंकि कार्य द्रव्य और विशेष पदार्थ तथा सदृश परिणाम स्वरूप सामान्य इन सवको भी जैनों ने पर्याय स्वीकार किया जैसे कि क्रिया को और समवायिकारण के प्रयोजक हो रहे समवाय को हम जैन पर्याय मानते हैं।
____ अर्थात्-घट, पट, प्राम, अमरूद, फूल, पुस्तक, ये सव कार्य द्रव्ये उस पुद्गल द्रव्य की पर्याय हैं तथा 'एकस्मिन्द्रव्येक्रमभाविनः परिणामा: पर्याया अात्मनिहर्षविषादादिवत्' 'अर्थान्तरगतोविसश. परिणामो व्यतिरेको गोमहिषादिवत्' ये पर्याय और व्यतिरेक दोनों प्रकारके विशेष भी पर्याय स्वरूप है तथैव 'सदृशपरिणामस्तिर्यक् खण्ड मुण्डादिषु गोत्ववत्' 'परापरविवर्तव्यापि द्रव्यमूर्खता मदिवस्थासा. दिषु' ये दोनों प्रकार के सामान्य भी पर्याय स्वरूप ही पड़ते हैं हलन, चलन, गमन, आदि क्रियायें तो पर्यायें हैं ही। कोई विवाद नहीं है, समवायि कारण या उपादान कारण का अनुजीवी होरहा कां चित् अविध्वग्नाव सम्बन्ध स्वरूप समवाय तो भला पर्याय के सिवाय और क्या पदार्थ होसकता है? प्रतः वैशेषिकों द्वारा परमतों के निराकरणार्थ लक्षण में जितमे भी इतर व्यावर्तक पद दिये जाते