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________________ ४०० श्लोक-वार्तिक उचित मार्ग है। यदि बौद्ध यों कहें कि शुद्ध सम्वेदनाद्वैत में प्रत्यक्ष आकार और परोक्ष आकार ये दोनों बास्तविक नहीं हैं कल्पित हैं, सम्वेदन तो स्वकीय स्वरूप में ही संलग्न हैं। यों कहने पर तो हम जैन टका सा उत्तर देदेंगे कि तब जो बौद्धों के यहां परमार्थभूत और अपरमार्थभूत आकार वाला एक सम्वेदन वलात्कार से आपड़ेगा। बौद्धों के कहने से ही वास्तविक आकार और कल्पित आकार ये दो प्राकार एक सम्वेदन में प्रविष्ट होरहे हैं। यदि बौद्ध इस पर पुनः यों कहें कि विज्ञान का परमार्थ आकार ही वास्तविक सत् है, सम्वेवन का कल्पित आकार तो वस्तुभूत सत् नहीं है । ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार कह रहा वौद्ध तो एक ही समय सत्व स्वभाव और असत्व स्वभाव से आक्रान्त होरहे एक सम्वेदन को स्वीकार कर ही लेता है बौद्ध ने बड़ी सरलता से सम्वेदन में वास्तविक सत्व और अपरमार्थभूत असत्व इन दो धर्मों को झटिति स्वीकार करहो ।लया है। न सन्नाप्यसत्संवेदनमित्यपि व्याहतं, पुरुषाद्वैतादिवत्ततः सकृदनेकम्वभावमेकं वस्तु तत्वतः सिद्धत्यन्यथा सर्वस्य स्वेष्टतत्वव्यवस्थानुपसत्तेः। स्वपररूपोपादानापोहनव्यवस्था पाद्यत्वाद्वस्तुत्वस्येति प्रपंचितप्रायं । सम्वेदन सद्भूत नहीं है और साथ ही प्रसद्भूत भो नहीं है, यों वौद्धों के कहने पर प्राचार्य कहते हैं, कि उनका कहना भी व्याघात दोष से युक्त है जैसे कि पुरुषाद्वैत, चित्राद्वैत, आदि के साधक पूर्व पक्षोंमें अनेक व्याघात दोष पाते हैं, उसी प्रकार सम्वेदन को सत् भी नहीं और उसी समय असत् भी नहीं कहने में वदतोव्याघात है। अर्थात्-परस्पर विरुद्ध हारहे धर्मों का संकृतविधि या युगपत निषेध दोनों नहीं होसकते हैं " न सत्" इतना कहते ही तत्काल असत् का विधान होजाता है फिर असत् का निषेध नहीं करसकते हो और असत् नहीं कहते हो सत् की विधि होजाती है, ऐसी दशा में पुनः सत् का निषेध नहीं कर केकते हो। बलात्कार से कहने वाले का मुह उसी समय दबा दियो जायगा. परस्पर विरुद्ध पदार्थों में से एकतर का निषेध करने पर द्वितीय का आवश्यक रूप से विधान हो ही जाता है, सकृत् दोनों का निषेध करना सवथा अलोक है। हां अनेकान्त-वाद अनुसार कथंचित् सत्व और कथंचित असत्व दोनों धर्म एक सम्वेदन में ठहर जाते हैं तिस कारण सिद्ध हुमा कि एक वस्तु युगपत् अनेक स्वभावों को वास्तविक रूप से लिये हुये है, अन्यथा यानी वस्तु में अनेक धर्मों को नहीं मान कर एकान्त वाद को स्वीकार किया जायगा तब तो इस अन्य ही प्रकार से सम्पूण वादियों के यहां अपने अपने अभीष्ट तत्वों की व्यवस्था नहीं बन सकेगी। श्री अकलंकदेव महाराज ने कहा है, कि वस्तुका वस्तुपना तो अपने स्वरूप का उपाद और परकीय रूप का परित्याग इस निमित-व्यवस्था से प्रापादन करने योग्य है । जो भी कोई वादी अन्तरंग तत्व या बहिरंग तत्व अथवा परम ब्रह्म, सम्वेदन, चित्र आदि तत्वों को स्वीकार करेगा वे तत्व स्वाभिमत रूप से इष्ट होंगे और पराभिमत स्वरूप से अनिष्ट माने जाएंगे अथवा माने तत्व
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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