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________________ पंचम-प्रध्याये ܐܘ इष्ट हैं, और दूसरों के तत्व अनिष्ट हैं । ऐसी दशा में अनेकान्त दुर्निवार है, इस अनेकान्त के सिद्धान्त का हम पूर्वं प्रकरण में प्राय: करके विस्तार पूर्वक विचार कर चुके हैं, यहां इतना ही कहने से पूरा पड़ो । तथा क्रमानेकां निराकरणवादिनं प्रति पर्यायवद्रव्यं प्रतीमानत्वात सर्वस्य परिणामित्वसिद्ध ेः प्रतिपादितत्वात् । एवं क्रमाक्रमाने कां तनिराकरणप्रवण मानसं प्रति गुणपयद्रव्यमित्युक्त सर्वथा निरुपाधिभावस्याप्रमाणत्वात् । सह अनेकान्त का निराकरण करने वाले वादियों को समझा दिया गया है, सूत्रकार ने गुणवद्द्रव्यं इसी लिये कहा है । तथा क्रम से अनेकान्त का निराकरण कर रहे बादी के प्रति तो सूत्रकार ने द्रव्य के लक्षण में 'पर्यायवद्द्रव्यं' या पर्ययवद्रव्यं इतना श्रंश कहा है, भावार्थ - क्रमवर्तिनः पर्यायाः ' प्रत्येक गुण की एक समय में एक पर्याय होती है, इस ढंग अनुसार अनन्तानन्त पर्यायें क्रम से होती रहती हैं, मृत्तिका की शिवक, स्थास, कोष, कुशूल, घट, कपाल, कपालिका आदि होरही पर्यायें प्रतीत की जा रही हैं कपास की रूई धुनी रूई, पौनो, अडिया ग्रांटे प्रातान वितान, पट, चींथरा आदि अवस्थायें देखो जा रहीं हैं जव के सम्पूर्ण पदार्थों के परिणामी पन की सिद्धि का प्रतिपादन किया जा चुका है पूर्व अवस्था का त्याग, उत्तर अवस्था का ग्रहण, प्रजहद्वृत्तिता, ये वर्तनायें ही परिणाम को प्राण हैं । श्री माणीक्यनन्दी प्राचार्य ने परिणाम का लक्षण यही कहा है। कितने ही कूटस्थवादी महाशय क्रम से होने वाले परिणाम का स्वीकार नहीं करते हैं सांख्यमती पण्डित कूटस्थवर्त्ती आत्मा के परिणामों को नहीं मानते हैं, प्रधान के भो आविर्भाव तिरोभाव वाले परिणाम माने गये हैं, उत्पाद विनाश, शाली परिणाम नहीं इष्ट किये हैं, नैयायिक, वैशेषिक, भो आत्मा आकाश, आदि की क्रमवर्त्ती पर्यायों का होना नहीं अभीष्ट करते हैं, ब्रह्माद्वैतवादी पण्डित 'सर्वं वं खल्विदंब्रह्म नेह नानास्ति किंचन । प्रारामं तस्य पश्यन्ति न तं पश्यति कश्चन,, यों ब्रह्म के प्राराम पानी पर्यायों को इष्ट करते हैं, किन्तु वे उनका वस्तुभूत नही मानते हैं क्रम से वर्तना भो इष्ट नहीं करते हैं अथवा ब्रह्म में उन पर्यायों का खोज ही खो देते हैं । यो क्रम से होने वाला पर्यायों या अनेक स्वभावों के अनेकान्त का निराकरण कर रहे पण्डितों के प्रति द्रव्य के लक्षण में पर्याय सहितपना कहना सूत्रकार का समुचित कर्तव्य है । - इसी प्रकार जिन पण्डितों का चित्त क्रम अनेकान्त और ग्रक्रम अनेकान्त दोनों के निराकरण में प्रवीण होरहा है ऐसे वैभाषिक माध्यमिक तत्वोपप्लववादी आदि वादियों के प्रति वस्तुभूत सिद्धात का निराकरण करने के लिये सूत्रकार ने 'गुणपर्य' यवद्रव्यं' गुणों और पर्यायों वाला द्रव्य होता है, इस प्रकार गुण पर्याय उभय का प्रतिपादक प्रखण्ड सूत्र कहा है, कारण कि सभी प्रकारों से ५१
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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