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________________ पंचम-प्रध्याय ३१ होरहा है अथवा पूर्व स्थान से विभाग करती हुई परमाणु चुपट कर यहां दूसरे परमाणु के निकट ठिठक गई है, अतः संयोग विभागों से कोई निराला परिणाम बन्ध स्वरूप प्राप्ति होजाना नहीं सम्भवता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तुम नहीं कह सकते हो इन प्रनुचित वचनों में कोई युक्ति नहीं है जब कि विभाग और संयोग से निराली तीसरी विशेष अवस्था का सद्भाव पाया जाता है जो कि तीसरी अवस्था उनके बन्ध जाने पर स्कन्ध पिण्ड में एकत्व के ज्ञान कराने का हेतु हो रही है " अनेकपदार्थानामेकत्वबुद्धिजनकसम्बन्धविशेषो बन्धः " परमाणुओं के संयोग और विभाग से तीसरी अवस्था बन्ध है जैसे कि शुक्ल द्रव्य और पीत द्रव्य का बन्ध परिणाम होजाने पर एक युक्त होग्हा पीत वर्ण परिणाम वाला पदार्थ उपज जाता है। पीले रंग वाले जल में सफेद कपड़े को डुबा देने पर न्यारा ही वर्ण वाला पदार्थ दृष्टिगोचर होजाता है दूध में हल्दी या केसर डाल देने से विलक्षण रंग आजाता है। अथवा गीले लपटा गुड़ में धूल, चून, आदि का पीछे प्रवेश होजाने पर जैसे धूल आदि की मधुर रसवाली पर्याय उपज बैठती है, उसी प्रकार परमाणुओं की बन्ध अवस्था निराली ही है। नन्वत्रापि द्वावेव गणावधिको पारिणामिकाविति कुतः प्रतिपत्तिः ? सुनिश्चितासंभवद्वाधकप्रमाणादागमाद्विशेषतस्तत्प्रतिपत्तिः । एवं ह्युक्तमार्षेन्त्यवर्गगायां बन्धविधाने नोगमद्रव्यबन्धविकल्पे सादिवैत्र सिकबन्ध निर्देशे प्रोक्तः विषम स्निग्धतायां विषमरूक्षतायां च बन्धः समस्निग्धतायां समरूचतायां वा भेद इति । तदनुसारेण सूत्रकारैर्बंधव्यवस्थापनात् परमागमसिद्धो बन्धविशेषहेतु द्वं यधिकादिगुणत्वं । द्वयोरेव वाधिकयोगुणयोः पारिणामिकत्वं । फिर भी यहां कोई शंका करें कि यहां भी दो ही गुरण अधिक होरहे भला अन्य बध्यमान को स्वानुरूप परिणमन कराने वाले हैं ? इसकी किस प्रमाण से प्रतिपत्ति कर ली जाय ? बताश्रो ग्रन्थकार इसका उत्तर कहते हैं कि वाधक प्रमाणों के नहीं सम्भवने का जिसमें बहुत अच्छा निश्चय किया जा चुका है ऐसे सर्वज्ञ श्राम्नात श्रागमप्रमाण से विशेषरूप करके उस सूत्रोक्त सिद्धान्त की दृढ़ प्रतीति होजाती है जबकि सर्वज्ञ की परम्परा से चले आ रहे और बुद्धिऋद्धिधारी ऋषियों करके बनाये गये सिद्धान्त आगम ग्रन्थों में इस प्रकार कहा जा चुका है । अन्तिम वर्गणा के निरूपण अवसर पर बन्ध का विधान करने में नो श्रागम द्रव्य बन्ध के भेद का निरूपण करते सन्ते सादि वैखसिक बन्ध के कथन में यों बहुत अच्छा कहा गया है कि विषम स्निग्धता के होने पर और विषम रूक्षता के होने पर तो बन्ध होगा तथा समस्निग्धता के होने पर अथवा समरूक्षता के होने पर भेद ( विदारण) होजायेगा । अर्थात् स्नेह गुण के अविभागप्रतिच्छेदों की विषम धारा प्राप्त होजानेपर या परमाणु में रूखेपने के श्रविभागप्रतिच्छेदों की विषम संख्या प्राप्त होजाने पर परमाणुयों का परस्पर बन्ध होजायेगा तभी तो सूत्रकार ने " द्धयधिकादिगुणानां तु" लिखा है और उन प्रतिभाग प्रतिच्छेदों की समता होजाने पर बंध नही होना बताया है, तदनुसार 'न जघन्यगुणानां ' "गुणसाम्ये सदृशानां" ये दो सूत्र कहे हैं, गुरुपर्वक्रम का अतिक्रमण नहीं होसकता है, उस प्रागम के अनुसार से सूत्रकार महाराज करके
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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