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श्लोक-वार्तिक
पड़ता है । तिस कारण " बन्धेधिको पारिणामिको " उचित है। इस सूत्र में च शब्द लगाने की कोई आवश्यकता नहीं दीखती है।
यथैव हि रूक्षाणां सक्तूनां स्निग्धा जलकणास्ततो द्वाभ्यां गुणाभ्यामविकाः पिंडा त्मतया पारिणामिका दृश्यंते नान्यथा । तथैव परमाणार्द्विगुणस्य चतुर्गुणः परमाणुः पारिणामिकः स्यादन्यथा द्वयोः परमाण्वोरन्योन्यमविविक्तरूपद्वयणुकस्कंधपरिणः मायोगात संयोगमात्रप्रसक्तः परस्परविवेकप्रसक्तस्तदनन्वयवत्वं ।।
इस यथा का अगले तथा शब्द के साथ अन्वय कर लेना चाहिये जब कि जिस ही प्रकार रूखे सतुप्राओं को चिकने जल के कण उन सतुप्राओं से दो गुण करके अधिक होरहे सन्ते पिण्ड स्वरूप करके परिणाम कराते हुये देखे जाते हैं । अन्य प्रकारों से नहीं देखे जाते हैं। अर्थात्-अधिक चिकनाई को धार रहा जल ही रूक्ष प्रकृतिके सतुप्राओं का चिकना पिण्ड बांध देता है। एक सेर सतुबानों में दो चार वूद पानी तो सूख कर सतुपात्रों के रूखेपन में अपना खोज खो देवेगा सतुपा खाने वाले तभी तो अधिक पानी में सतुपात्रों की पिण्डी बनाते हुये स्वादु रसायन सिद्ध कर लेते हैं ।
तिस ही प्रकार दो गुण वाली परमाणु का चार गुण वालो परमाणु बन्ध कर स्वानुरूप परिणमन करा देती मानी जायेगी अन्यथा यानी दूसरे अधिक गुण वाले के अनुरूप पारणमन नहीं माना जाकर यदि अपने अपने पूर्वोपात्त गुणों अनुसार ही परिणति बने रहना माना जायेग दोनों परमाणुओं की परस्पर में अपृथक् भूत स्वरूप होरहे द्धयणुक स्कंध नामक परिणति होजाने का प्रयोग होजावेगा, दो परमाणुओं का केवल संयोगमात्र ही होजानेका प्रसंग आवेगा जोकि अवयवो को मानने वाले जैन, नैयायिक, वैशेषिक किसी के यहां इष्ट नहीं किया गया है। अपने अपने गुणों को धार रहीं परमाणुयें पृथक् पृथक् पड़ी रहेंगी तो दोनों की अपृथक् अवस्था रूप द्धघणुक स्कन्ध भला कहां बना । बौद्धों का सा प्रत्यासन्न प्रसंसृष्ट स्पर्शमात्र माने रहो ऐसी दशा में परमाणुओं का परस्पर प्रथग्भाव बने रहने का ही प्रसंग आया, अतः उन परमाणुषों का अन्योन्य हृदय नहीं मिलने से अनन्वय सहितपना होगया यानी एक परमाणु के साथ दूसरे परमाणु का अन्वय नहीं बन सका। अन्वय के विना अवयवी स्कन्ध की सिद्धि कथमपि नहीं होसकती है। नदी में जल की धारायें जैसे जलमें अन्वित होरही हैं उसी प्रकार अवयवी में अवयवों का एक रस होरहा है।
न च विमागर्मयोगाभ्यामन्यपरिणामः प्राप्तिरूपो न संभवतीति युक्तं वक्तु', वतीयस्यावस्थाविशेषस्य स्कंधैकत्वप्रत्ययहेतोः मद्भावात् । शुक्लपीतद्रव्ययोः परिण मे युक्त. पीतवर्णपरिणामवत् क्लिन्नगुडानुप्रवेशे रेणवादीनां मधुरसपरिणामवद्वा ।
___ यदि कोई यों कहे कि मिलकर भी परमाणुओं का संयोग ही बना रह सकता है नित्य परमाणयें अपने स्वरूप को छोड़ नहीं सकती हैं और न्यारी न्यारी पड़ी हुई परमाणुमों में केवल विभाग