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________________ ३६२ श्लोक - वार्तिक बंध की व्यवस्था कराई गई है, अतः द्वयधिक आदि गुण सहिताना जो विशेषतया बंध का हेतु माना गया है, वह परमोत्कृष्ट सिद्धान्त ग्रागम में प्रसिद्ध है, दो ही अधिक होरहे गुरणों को दूसरे के अल्पगुणों का तादृश परिणाम करा देने की हेतुता प्राप्त है, एक से अधिक या तीन चार से अधिकगुणों को स्वानुरूप परिणाम की कारणता प्राप्त नहीं है । सामान्येन तु पुद्गलाना बंधहेतुः कश्चिदस्ति कात्स्न्यैकदेशतो बंधासंभवेपि बंधविनिश्चयात्तत्र वाधकाभावादिति पुद्गलस्कन्धद्रव्य सिद्धिः, तस्यैव रूपादिभिः स्वभावैः परिणतस्य चक्षुरादिकरणग्राह्यता मापन्नस्य रूपादिव्यवहार गोचरतया व्यवस्थितेः । न हि तथाऽपरिणतं तद्भवत्यतिप्रसंगात, नापि तदेव परिणाममात्र प्रसंगात् न च परिणामिनो सत्वे परिणामः सम्भवति खरविषाणस्य तैच्ण्यादिवत् ! जगत् में अनेक प्रकार के स्कन्ध दृष्टिगोचर होरहे हैं, अतः सामान्य करके तो पुद्गलों के बंध के कारण कोई न कोई माना ही जाता है, भले ही बौद्ध जन यों दोष देते रहें कि एक अवयय का दूसरे अवयव के सम्पूर्ण देशों से बध माना जायेगा तो स्कन्ध के सूक्ष्म एक पिण्ड मात्र होजाने का प्रसंग आजावेगा और एक देश करके बंध मानने पर अन्य अन्य भीतरी एक देशों की कल्पना करतेकरते अवस्था होजायगी । आचार्य कह रहे हैं, कि यों पूर्ण देश और एक देश से बंध का असम्भव होजाना बताने पर भी जब बंध का विशेष रूप से निश्चय होरहा है, तो उस जैसे भी हो तैसे सामान्यतः बंध होजाने में कोई वाधक प्रमाण नहीं है । इस प्रकार पुद्गलों के स्कन्धद्रव्य की सिद्धि होजाती है, “सांप निकलगया लकीर को पीटते रहो, यों "गतसर्पधृष्टि - कुट्टन न्याय" अनुसार पीछे भले ही बध में दोष देते रहो, क्या होता है । दक्ष पुरुष अपना काम निकाल लेता है, पीछे पोंगा, बुद्ध पुरुष भले ही मैंने यों करना चाहा था मैंने विघ्न Stear विचार किया था मैंने छींक दिया था, यों वकते रहो। इस भोंदूपन की पंचायत में कोई तत्व नहीं है । उस पुद्गल स्कन्ध के हो रूप आदि स्वभावों करके परिणत होरहे और चक्षुः, रसना, प्रादि इन्द्रियों से ग्रहणयोग्यपन को प्राप्त होचुके पदार्थ की रूप, रस आदि व्यवहार के विषय होजानेपने करके व्यवस्था की गई है, यानी जो रूप यादि स्वभावों करके परिणत होचुका पुद्गल द्रव्य है, वही रूप कहा जा सकता है, “गुणे शुक्लादयः पुंसि गुणिलिंगास्तु तद्वति, यह कोष वाक्य भी है, रूप से परिणत होरहा ही पुद्गल रूप कहा जा सकता है, जो तिस प्रकार यानी रूप रहितपने करके परिणत नहीं होता है, वह उस रूप स्वरूप नहीं होपाता है, यदि बलात्कार से तथा अपरिणत को तत् माना जायेगा तो प्रतिप्रसंग होजायेगा यानी अज्ञ जड़ पदार्थ ज्ञ बन बैठेगा, अनुष्ण जल भी उष्ण जल होजायेगा, कोई रोक रोक नहीं रहेगी । एक बात यह भी है, कि रूप आदि स्वभावों से परिणत पदार्थ रूपवान् नहीं माना जाकर यदि वह रूप ही माना जायेगा तब वो केवल परिणाम हो के सदभाव का प्रसंग प्राता है, किन्तु तिस
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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