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श्लोक-वार्तिक सम्बन्धयितुमशक्तः । सत्यप्यधिकारे अभिप्रेतसम्बन्धस्य यत्नमन्तरेणाप्रसिद्धः। च शब्दकरणाव तसिद्धिरिति चेत्, को विशेषः स्यादेकयोगकरणे १ योगविमागे तु स्पष्टा प्रतिपत्तिरिति स एवास्तु ।
__ यहां कोई तर्क उठाते हैं कि पूर्ववर्ती "द्रव्याणि" मौर . इस सूत्र को मिलाकर "द्वव्याणि जीवाः" इस प्रकार दोनों को जोड़कर एक सूत्र करना सूत्रकार को उचित था, दो सूत्र बनाने से और च शब्द डालने से गौरव होता है ? ग्रन्थकार समझाते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि जीवों के ही द्रव्यपन का प्रसंग आवेगा अर्थात्-जीव ही द्रव्य हो सकेंगे, धर्म आदिक चार या पांच पदार्थ द्रव्य नहीं हो सकेंगे।
यदि तर्की यों कहे कि धर्म आदिकों का अधिकार चला मा रहा है अतः एक योग होने पर भी धर्मादिकों के द्रव्यपन का भी साथ में समीचीन प्रत्यय हो जाता है और "द्रव्यारिण" यह बहुववन भी तो किसी न किसी रोग की औषधि है । प्राचार्य कहते हैं कि यह भी तो नहीं कहना क्योंकि एक योग करने पर द्रव्य शब्द जब जीव शब्द के साथ सर्वाङ्गीण बंध जायगा ऐसा होने से उस द्रव्य शब्द का धर्मादिकों के साथ सम्बन्ध नहीं किया जा सकता है, अधिकार चला आ रहा होते हुये भी अभीष्ट पदार्थ के साथ किसी विवक्षित पद के सम्बन्ध करने की विशेष प्रयत्न के बिना लोक व्यवहार या शास्त्रव्यवहार में प्रसिद्धि नहीं है, अतः जीवों को ही द्रव्यपना सिद्ध हो सकेगा। रहा "द्रव्याणि" यह बहुवचन तो बहुत से जीवों को न्यारे न्यारे स्वतन्त्र द्रव्यपन का विधान करते हुये अनन्तानन्त जीव द्रव्यों की सिद्धि कराने के लिये सफल है।
यदि तर्क करने वाले तुम यों कहो कि इस सूत्र में "च" शब्द करने से धर्मादिकों के उस द्रव्यपन की सिद्धि कर दी जायगी, यों कहने पर तो हम जैन कहते हैं कि ऐसी दशा में एक योग करने पर या दो सूत्र बनाने पर भला क्या अन्तर रहा ? अर्थात्-कुछ भी नहीं। साठ और तीन-वीसी का अर्थ एक ही है। प्रत्युत योगका विभाग कर दो सूत्र कर देने पर तो धर्मादिकों के द्रव्यपन की अधिक स्पष्ट प्रतिपत्ति हो जाती है इस कारण न्यारे दो सूत्र बनाकर वह योगविभाग करना ही अच्छा बना रहो यो "च" शब्द करना भी सार्थक हो जाता है।
किं पुनरनेन वा व्यवच्छिद्यते इत्याह
कोई प्रश्न करता है कि प्रायः सभी सूत्र अनिष्ट हो रहे इतर धर्मों की व्यावृत्ति किया करते हैं, सूत्रकार ने इस सूत्र करके भला किसका व्यवच्छेद किया है ? ऐसो जिज्ञासा होने पर ग्रन्थकार समाधान को कहते हैं।
कल्पिताश्चित्तसन्ताना जीवा इति निरस्यते।
जीवाश्चेतीह सूत्रेण द्रव्याणीत्यनुवृत्तितः॥१॥ यहां “जीवाश्च" इस सूत्र करके "द्रव्याणि" इस पूर्व सूत्र की अनुवृत्ति कर देने से बौद्धों द्वारा माने गये कल्पित चित्त सन्तान जीव हैं, इसका निराकरण कर दिया जाता है। अर्थात्-बौद्ध जन अन्वित द्रव्य को स्वीवार नहीं करते हैं असत् का उत्पाद और सत् का विनाश मानते हुये प्रति