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________________ पंचम-अध्याय क्षण एक एक विज्ञान परिणाम को उपज रहा स्वीकार करते हैं, उन अनेक ज्ञान-प्रात्मक चित्तों के कल्पित समुदाय या त्रिकाल सम्बन्धी कल्पित क्षणिक क्षणों की सन्तान को जीव मान बैठे हैं, उसका निराकरण करने के लिये अनेक गुणों के आश्रय हो रहे परमार्थ-भूत जीवों को भी वास्तविक अन्वित द्रव्यपना इस सूत्र द्वारा जताया गया है। नह्यपरामृष्टभेदा निरन्वयविनश्वरचित्तक्षणा एव पूर्वापरीभूताः सन्ताना जीवाख्यां प्रतिपद्यत इति युक्तं, यतस्तेषां संवत्या द्रव्यव्यवहारानुरोधतः प्रमाणतः प्रसिद्धान्वयत्वात् । प्रमाणं पुनस्वदन्वय साध कमेकत्वात्यभिज्ञानं पुरस्तात्समर्थितमिति परमार्थसदेव द्रव्यत्वमनेन जीवानां सूत्रितं । ततः कल्पिताश्चित्तसन्ताना एव जीवा इत्येतन्निराकृतं वेदितव्यं । बौद्ध यों मान रहे हैं कि “अन्वय-रहित हो रहे विनाश-शील ऐसे विज्ञान परमाणुओंके क्षणिक क्षण ही वस्तुभूत हैं जो कि पहले पिछले समयों में आगे पीछे होचुके, हो रहे, हो गये इस ढङ्गसे स्वतन्त्र अकेले अकेले अपने अपने काल में हैं, जिस प्रकार भिन्न सन्तानों का परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं है, उसी प्रकार एक सन्तान मानी जा रही स्वलक्षणों की लम्बी पंक्ति में एक दूसरे का कोई सम्बन्ध नहीं है, परस्पर में सर्वथा भेद पड़ा हुआ है । भेद पड़े होते हुये भी मिथ्या वासनामों के अनुसार उस दका परामर्श नहीं किया गया है अतः समूल-चूल नष्ट हो गये, वर्तमान क्षण में वर्त रहे, और सर्वथा ढंग से उपजने वाले, ऐसे पहिले पिछले अनेक निरन्वय क्षणिक सन्तानी स्व में पडे हये भेद की नहीं विवक्षा करने पर जीव नामक संज्ञा को प्राप्त हो जाते हैं, अतः जीव पदार्थ कल्पित है, न्यारे न्यारे चित्तक्षण ही अकेले अकेले वस्तुभूत हैं।" प्राचार्य कहते हैं कि यह बौद्धों का कहना युक्तियों से पूर्ण नहीं है, जिस कारण से कि उन जीव नामक सन्तानों का तुम्हारा यहां व्यवहार या झूठी कल्पना करके द्रव्यपन के व्यवहार की अनुकूलता से प्रमाणों द्वारा अन्वय प्रसिद्ध हो जायगा अर्थात्--जीवों में द्रव्यपना तुम संवृति से स्वीकार करोगे उसी समय समीचीन युक्तियों द्वारा पूर्वापर अनेक पर्यायों में अन्वितपना अच्छा सिद्ध कर दिया जायगा उस अन्वय को अच्छा साधने वाले एकत्व ग्राह 6 प्रत्यभिज्ञान के फिर प्रमाणपनका पहिले प्रकरणों में समर्थन किया जा चुका है, इस कारण जीवों का द्रव्यपना वास्तविक सत् ही है। इस बात को इस सूत्र करके सूचित किया गया है और तैसा हो जाने से "कल्पित चित्त सन्तान ही जीव है" इस प्रकार के इस बौद्ध मन्तव्य का निराकरण कर दिया गया समझ लेना चाहिये "एकसन्तानगाश्चित्तपर्यायास्तत्वतोन्विताः । प्रत्यभिज्ञायमानत्वात्मत्पर्याया यथेदृशाः" इत्यादि पहिले वात्तिकों का अध्ययन करलो। पृथिव्यादीन्येव द्रव्याणि न जीवास्तेषां तत्समुदायोत्थजीवत्कायात्मकत्वात्, चैतन्यविशिष्टः कायः पुरुष इति वचनात् द्रव्यांतरत्वानुपपत्तेरित्यपरः, सोपि तेनैव पराकृत इत्यावेदयति । यहाँ चार्वाक बोल उठे कि पृथिवी आदिक ही चार द्रव्य हैं जोव कोई तत्वान्तरभूत द्रव्य नहीं है क्योंकि वे जीव तो उन पृथिवी, जल, तेज, वायु, के विशिष्ट समुदाय से उपजे हुये काय-प्रात्मक
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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