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________________ पंचम-मध्याय द्रव्यस्वे साध्ये धर्मादीनां धर्मिणामप्रसिद्धत्वाद्गुणि त्वादित्यस्य हेतोराश्रयासिदुत्वात्तत एव गुणित्वस्यासंभवात् स्वरूपासिद्धत्वं चैत्येके । तन्न सम्यक् तेषामग्र प्रमाणतः साधनात् तत्र महत्त्वादिगुणस्थितत्वाच्च । ततः सूक्त धर्मादयो द्रव्याणीति । उक्त वात्तिकों का विवरण यों है कि कोई एक विद्वान् यहां दोष उठारहे हैं कि धर्म आदिकों का द्रव्यपना साध्य करने पर पक्षस्वरूपमियों के अप्रसिद्ध होजाने से “गुणसहितपन" इस हेतु का आश्रयासिद्धपना है और तिस ही कारण से यानी जब पक्ष ही नहीं तो हेतु विचारा कहां ठहरेगा? यों पक्ष में हेतु का सम्भव ( सद्भाव) नहीं होने से गुरिणत्व हेतु स्वरूपासिद्ध है। आचार्य कहते हैं कि विलक्षण एक विद्वान् का यह कहना समीचीन नहीं है क्योंकि अगले ग्रन्थ में प्रमाणों से उन धर्म अधर्म, और आकाश का साधन कर दिया जावेगा अतः हमारा हेतु आश्रयासिद्ध हेत्वाभास नहीं है। तथा उन धर्म आदि तीनों में महत्त्व आदि गुणों की स्थिति होरही होनेसे गुरिणत्व हेतु स्वरूपासिद्ध भी नहीं है तिस कारण सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा यों बहुत अच्छा कह दिया है कि धर्म आदिक चार पदार्थ द्रव्य हैं अर्थात्-गुण या पर्याय अथवा स्वभाव एवं अविभागप्रतिच्छेद या अभावस्वरूप नहीं हैं किन्तु इन सबके तदात्मकपिंड भूत प्रखण्ड द्रव्य हैं "नयोपनयकान्तानां त्रिकालानां समुच्चयः । अविभ्राभाव--सम्बन्धी द्रव्यमेक मनेकधा"यह गुरु जी समन्तभद्र स्वामी ने द्रव्य का लक्षण बहुत अच्छा कहा है तथा सिद्धान्त-चक्रवर्ती नेमिचन्द्र प्राचार्य ने "एयदवियम्मि जे अत्थपज्जया वियणपज्जया चावि । तीदाणागदभूदा तावदियं तं हवदि दव्वं" यों प्राम्नात किया है । अकलंक देव महाराज के राजवात्तिक में कहे गये द्रव्यलक्षण से तो ग्रन्थकार की परिपूर्ण सहानुभूति है, ये द्रव्य के लक्षण सब धर्मादि में सुघटित होरहे हैं। अब क्या उक्त चार पदार्थ ही द्रव्य हैं ? अथवा क्या कोई अन्य पदार्थ भी द्रव्य है ? ऐसा प्रश्न प्रवर्तने पर अन्य द्रव्य का उपादान करने के लिये सूत्रकार इस अगले सूत्र को कहते हैं - जीवाश्च ॥३॥ जो जीव चुके हैं, जीव रहे हैं, जीवेंगे वे अनन्तानन्त जीव पदार्थ भी द्रव्य हैं । यों पांच ये और कहे जाने वाले काल के साथ सम्पूर्ण द्रव्य छह हो जाते हैं। द्रव्याणीत्यभिसम्बन्धः । तत्र बहुत्ववचनं जीवानां वैविध्यख्यापनार्थ । पूर्व सूत्र में कहे गये "द्रव्याणि" इसका विधेय दल की ओर सम्बन्ध कर लिया जाता है । अत: जीवों का उद्देश्य कर द्रव्यपन का विधान कर लिया जाय । उन जीवों में बहुवचनपना तो जीवों के अनेकपन को प्रकट करने के लिये है अर्थात्-अद्वैतवादियों के समान जीव एक ही नहीं है किन्तु संसारी मुक्त, या त्रस स्थावर, सूक्ष्म वादर, आदि भेदों करके अपनी अपनी न्यारी न्यारी सत्ता को धार रहे अनन्तानन्त जीव हैं । . द्रव्याणि जीवा इत्येकयोगकरणं युक्तमिति चेन्न, जीवानामेव द्रव्यत्वप्रसंगात् । धर्मादीनामप्यधिकारात् द्रव्यत्वसंत्प्रयय इति चेन्न, द्रव्यशब्द य जीवशब्दावबद्धत्वाद्धर्मादिभिः
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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