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________________ श्लोक-वार्तिक सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराज ने "द्रव्याणि" इस सूत्र से धर्म आदिकों को आत्मा का गुणपना, अभावपदार्थपना, गुण-समुदायपना, गुणसंभाव, प्रादि उन स्वभावपन का निराकरण कर दिया है, ऐसा जान लिया जाता है क्योंकि पर्यायों करके द्रवे जायं या पर्यायों को सदा प्राप्त करते रहें इस द्रव्य के लक्षण का सद्भाव इन धर्म आदिकों में है। धर्माधर्मयोरात्मगुणत्वादाकाशस्य च मूर्तद्रव्याभावस्वभावत्वान्न द्रव्यत्वमित्येके मन्यते, तान् प्रति धर्मादीनां गुणभावस्वभावत्वमनेनात्र प्रत्याख्यातं निश्चीयते । न हि पुण्यपापे धर्माधर्मो मो नाप्याकाशं मूर्तद्रव्याभावमात्र' द्रव्यलक्षणयोगात् तेषां द्रव्यव्यपदेशसिद्धः। कथमित्याह कोई एक विद्वान यों मान रहे हैं । कि वैशेशिक मतानुयायी तो धर्म और अधर्म को प्रात्मा का विशेषगुण स्वीकार करते हैं उनके यहां चौवीस गुणों में या आत्मा के चौदह गुणों में धर्म, अधर्म, (अदृष्ट ) गिनाये गये हैं अतः आत्मा के गुण होने से धर्म, अधर्म, को व्यपना नहीं माना जाता है। पृथिवी आदि नौ ही द्रव्य हैं तथा चार्वाक मत के अनुयायी आकाश को स्वतंत्र द्रव्य नीं मान कर मूर्तद्रव्यों का प्रभाव स्वरूप स्वीकार करते हैं। प्रसज्यवृत्ति से मूर्त द्रव्योंका तुच्छ प्रभाव आकाश पड़ता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि उन वैशेशिक या नैयायिकों तथा चार्वाक् या बौद्धोंके प्रति धर्म आदिकों का गुण स्वरूप भावस्वभावपना इस सूत्र करके यहां खण्डन कर दिया जा चुका निश्चय कर लिया जाता हैं हम ग्रन्थकार पुण्य और पाप को धर्म और अधर्म नहीं कह रहे हैं तथा मूर्त व्यों के केवल अभाव को अाकाश भी नहीं वखान रहे हैं क्योंकि द्रव्य के सिद्धान्तित लक्षण का सम्बन्ध होजाने से उन धर्म अधर्म, और आकाश को द्रव्य का व्यवहार होना युक्तियों से सिद्ध है । किस प्रकार है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर प्राचार्य समाधान कहते हैं धर्माधर्तो मतो द्रव्ये गुणित्वात्पुद्गलादिवत् । तथाकाशमतो नैषां गुणाभावस्वभावता॥२॥ न हेतोराश्रयासिद्धिस्तेषामग्रे प्रसाधनात् । नापि स्वरूपतोसिद्धिमहत्त्वादिगुणस्थितेः ॥३॥ धर्म और अधर्म (पक्ष) द्रव्य माने गये हैं ( साध्य ) गुणवान् होने से ( हेतु ) पुद्गल, आत्मा, प्रादि द्रव्यों के समान (अन्वय दृष्टान्त ) तिसी प्रकार गुणवान् होने से आकाश भी द्रव्य है अतः इन धर्म, अधर्मों, को गुणस्वभावपना और आकाश को प्रभाव स्वभावपना नहीं माना जा सकता है । गुणवान्पन हेतुके आश्रयासिद्ध दोष नहीं है क्योंकि उन अतीन्द्रिय धर्म, अधर्म और आकाशकी आगे ग्रन्थ में बहुत शच्छी सिद्धि करदी जावेगी अतः वस्तुभूत पक्ष के प्रसिद्ध होजाने पर हमारा हेतु आश्रयासिद्ध. हेत्वाभास नहीं है “पक्षे पक्षतावच्छेदकाभाव प्राश्रयासिद्धिः" तथा महापरिमाण, संख्या, संयोग गतिहेतुत्व, अस्तित्व, प्रमेयत्व आदि गुणों की स्थिति वर्त रही होने से गुणसहितपना हेतु स्वरूप से प्रसिद्ध भी नहीं है अर्थात् गुणीपना हेतु पक्ष में वर्तरहा होने से स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास नहीं है (पक्षे हेत्वभाव: स्वरूपासिद्धिः) सम्पूर्ण वादियों ने गुणवान् पदार्थों को द्रव्य स्वीकार किया है।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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