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________________ १६ पंचम - अध्याय द्रव्यत्वाभावलक्षणाभावात् तच्च द्रव्यत्वं द्रवणं द्रव्यमिति द्रव्यशब्दाभिधेयमयि सामान्यं यदि सर्वगतामूर्त नित्यस्वभावं द्रव्येभ्यः सर्वथा भिन्नं तदा न प्रमाणसिद्ध, द्रव्येषु सहशपरिणामस्यैव द्रव्यत्वाख्यस्यानुवृत्तप्रत्यय हेतुत्वोपपत्तेरित्यन्यत्र निरूपणात् । श्रथ तदेव साहश्यं सामान्यं तदभिमतमेत्र पर्यायैद्यंत इति द्रव्याणीति वचनात् सादृश्यव्यंजनपर्यायत्वात् । वैशेषिक पुनः अपना मत कहते हैं कि द्रव्य और द्रव्यत्व एक ही हैं क्योंकि द्रव्यत्व में द्रव्यपन के प्रभावका लक्षण विद्यमान नहीं है प्रतः वह द्रव्यपना द्रवरण-भाव स्वरूप होरहा द्रव्य है इस कारण द्रव्य शब्द का वाच्य भी द्रव्यत्व सामान्य है तब तो "पृथिव्यादीनि द्रव्यत्वानि" कह दो या " द्रव्याणि " कह दो, एक ही अर्थ पड़ता है । इस पर प्राचार्य कहते हैं कि वह द्रव्य या द्रव्यत्व रूप सामान्य भी सर्वव्यपक अमूर्त और नित्य स्वभाववाला माना जा रहा द्रव्यों से यदि सर्वथा भिन्न है तब तो वह प्रमाणों से सिद्ध नहीं है क्योंकि द्रव्यों में वर्त रहे सदृशपरिणाम को ही द्रव्यत्व इस नाम से कहा गया है, यह गौ है, यहगी है, इस प्रकार के अनुवृत्त ज्ञानों के हेतुपने करके सदृश परिणाम ही स्वरूप गोत्व आदि सामान्य वन सकते हैं, इसका निरूपण अन्य प्रकरणों में या अतिरिक्त ग्रन्थों में किया जा चुका है, अव वैशेषिक यदि उस सदृशपन को ही सामान्य ( जाति) पदार्थ कहैंगे तब तो हम जैनों को स्वीकार ही है । सिद्धात्त ग्रन्थों में ऐसा वचन है कि पर्यायों करके जो प्राप्त किये जारहे हैं इस कारण वे द्रव्य हैं ऐसी कर्मसाधन निरुक्ति कथन करदेने से द्रव्य शब्द साधु बन जाता है क्योंकि सदृशपरिणाम रूप व्यंजन पर्याय ही द्रव्यत्व पड़ता है सदृश परिणामों से अतिरिक्त अन्य गुण या पर्याय भी द्रव्य शरीर हैं । श्रात्मभूत धर्मादनुवर्तते इति सामानाधिकरण्यात् द्रव्याणीति वचनात् । पुल्लिंगत्वप्रसंग इति चेन्न, आविष्टलिंगत्वाद्रव्यशब्दस्य वनादिशब्दवत् । के पूर्व सूत्र में कहे गये धर्मादिक शब्दों की यहां अनुवृत्ति कर ली जाती है इस कारण उनके साथ समानाधिकरणवना होने से " द्रव्याणि " ऐसा बहुवचन से इस सूत्रका निर्देश किया गया है। यदि यहां कोई यों प्रक्षेय करे कि उन धर्मादिकों का समानाधिकररणपने से जैसे यहां वहुवचन किया गया है उसी प्रकार पुल्लिंग पनका भी प्रसंग आता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि द्रव्य शब्द अपने नियत लिंग को ग्रहण कर रहा श्राविष्टलिंग है जैसे कि वन, भाजन, पुण्य, आदि शब्द बहुबीहि समास के विना अपने लिंग को कहीं छोड़ते हैं उसी प्रकार द्रव्य शब्द अपने गृहीत न पुसकलिंग को नहीं छोड़ सकता है । किं पुनरत्रानेन सूत्रेण कृतमित्याह - पूछता है कि यहां सूत्रकार ने फिर इस सूत्र करके क्या क्या प्रयोजन सिद्ध किया है । इस प्रकार जिज्ञासा होने पर श्री विद्यानन्द आचार्य समाधान - कार अगली वार्तिक को कहते हैंतद्गुणादिस्वभावत्वं द्रव्याणीतीह सूत्रतः । द्रव्यलक्षणसद्भावात्प्रत्याख्यातमवेयते ॥ १ ॥
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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