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श्लोक-वार्तिक सहभावी क्रमभावी, पर्यायोंमें पाया जारहा द्रवण स्वरूप प्राप्त होजाना यो प्राप्त करलेना दो कथंचित् अभिन्न होरहे पदार्थों में ही घटित है।,
स्याद्वादिनों तु भेदनयार्पणात् पर्यायाणां द्रव्येभ्यः कथंचिद्भदे सति यथोदितपर्यायो प्राप्यते इति द्रव्याणि "कर्मणि यस्त्यो युज्यते" द्रवन्ति प्राप्नुवंति पर्यायानिति द्रव्याणीति च कर्तरि वहुलवचनादुपपद्यते । द्रव इव भवन्तीति द्रव्याणीति चैवार्थे द्रव्यशब्दस्य निपातनात् ।
स्याद्वादियों के यहां तो भेद नय की विवक्षा करने से पर्यायों का द्रव्य से कथंचित् भेद होने पर पूर्व में कहे जा चुके अनुसार उत्पाद व्ययवाले पर्यायों करके जो द्रुत होते रहते हैं यानी प्राप्त किये जाते हैं इस कारण वे द्रव्य हैं, यों विग्रह करके कर्म में य प्रत्यय करना युक्त पड़जाता है 'द्रु'धातु से कर्म में य प्रत्यय करनेपर द्रव्य साधु बनालिया जाता है तथा जो द्रव्य स्वतंत्र होकर पर्यायों को द्रवण करते हैं । यानी प्राप्त करते हैं। इस कारण द्रव्य हैं, यों कर्ता में बहुल वचन से 'य" प्रत्यय करना बन जाता है।
अर्थात्-कर्म में य प्रत्यय करना तो न्यायप्राप्त है बहुल शब्द का वचन होने से कहीं कहीं कर्ता में भी युट्प्रत्यय के समान य प्रत्यय कर लिया जाता है अथवा द्र यानी काष्ठ के समान जो होते हैं इस कारण ये द्रव्य हैं यों इव यानी सदृश अर्थ में द्रव्य शब्द को निपातसे साध लिया जाता है अर्थात्-द्रव्यंभव्ये इस सूत्र से निपात करके द्रव्य शब्द साधुबनालिया जाता है जैसेगांठ या चिन्हों से रहित होरहा सुन्दर काठ मन चाहे मोंगरा, मुद्गर कड़ी टोड़ा, जुप्रा आदि किसी भी प्रकार से प्रकट कर लिया जाता है । सुडौल उत्तम पाषाण में से कैसी भी प्रतिमा उकेर ली जाती है । तिसी प्रकार द्रव्य भी स्वपर या अन्तरंग बहिरंग कारणों अनुसार उत्पाद व्ययवाले पर्यायों करके भव्य कर लिया जाता है।
द्रव्यत्वयोगाद्व्याणोत्यारे, तेषां द्रव्यत्ववंतीति स्याद्दण्डीत्यभिधानवत् । अथाभेदोपचारः क्रियते यष्टि योगात् पुरुषो यष्टिरिति यथा तथापि द्रव्यत्वानीति स्यान्न तु द्रव्याणि ।
द्रव्यत्व जाति का समवाय सम्बन्ध होजाने से पृथिवी प्रादिक नौ द्रव्य माने जाते हैं इस प्रकार कोई दूसरे विद्वान् नैयायिक या वैशपिक कह रहे हैं । अचार्य कहते हैं। कि उनके यहां धर्म आदि या प्रथिवी आदि के साथ "द्रव्याणि" यह पद नहीं लगसकेगा भिन्न पृथिवी में भिन्न जातिका भिन्न सम्बन्ध होजाने से वे पृथिवी आदिक द्रव्यत्व जाति वाले हैं यों 'द्रव्यत्ववन्ति" ऐसा प्रयोग होसकेगा जैसे कि सर्वथा भेद अनुसार दण्ड के योग से पुरुष के लिये दण्डवान् या दण्डी यह शब्द कहा जाता है। यदि वैशेषिक इस दोष से बचने के लिये यहां अब अभेद का उपचार यानी अभेद नहीं होते हये भी पृथिवी प्रादिक नौ द्रव्य और द्रव्यत्व जाति में अभेद की कल्पना करैं जैसे कि लकड़ी या छड़ी के योग से पुरुष को लकड़ी कह दिया जाता है, लाल चोला वाले पुरुषको अभेद के उपचार अनुसार लाल चोला कह दिया जाता है। तब तो हम जैन कहते हैं कि तौभी "पृथिव्यादीनि द्रव्यत्वानि" पृथिवी आदिक द्रव्यत्व हैं यह शब्द कह सकोगे किन्त प्रथिवी आदिक दव्य हैं अभेद उपचार करनेपर यों कथमपि नहीं कह सकते हो “यष्टिः पुरुषः" यहां अभेद उपचार करने से मतुम् ही तो उड़ाया गया है, तदनुसार यहां भो मतुप् को हटा कर द्रव्यत्वानि होना चाहिये ।