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________________ पंचम-अध्याय मरजाता है अथवा एक के धड़ेपर दूसरे के सिर को या दूसरे के धड़ पर एक के सिर को जोड़ देने से दोनों मर जाते हैं, इसी प्रकार सर्वथा भेद पक्ष में पर्याय और पर्यायी दोनों असत् हैं । दो अन्धों के मिल जाने पर भी रूप को देखने की शक्ति नहीं उपज पाती है। वस्तुतः द्रव्य के पराधीन होरहे स्वभावों को ही पर्यायपना बनता है जोकि कथंचित् तादात्म्य पक्ष में शोभता है सर्वथा भेद में नहीं। पृथग्भृता अपि द्रव्यतो द्रव्यपरतन्त्राःपर्यायास्तत्समवायादिति चेन्न, कथंचित्तादात्म्यव्यतिरेकेण समवायस्य निरस्तपूर्वत्वात् । पर्यायेभ्यो भिन्नानां द्रव्याणां च सत्यसिद्धी पर्यायारिकल्पनावैयर्थ्यात् । कार्यनानारूपरिकल्पनायां त्वभिन्नपर्याय संबंधनानात्व सिद्धितरतनिबंधनपर्यायांतरपरिकल्पनाप्रसंगात् । सुदूरमपि गच्या पर्यायांतरतादात्म्योपगमे प्रथमत एव पर्यायतादात्म्योपगमे च न पर्यायव्याणि यंते कथंचिद्भिन्नानामे प्राप्यप्रापकभावोपपत्तेः । वैशेषिक कहते हैं कि द्रव्य से पृथग्भूत भी होरहीं किन्तु द्रव्योंके पराधीन होकर वर्तरहीं पर्यायें उस नियत द्रव्य की ही वखानी जाती हैं ययोंकि अयुतसिद्धि के अनुसार प्रात्मा में उन ज्ञान, आदि पर्यायों का या पृथिवी में रूप, रसादि पर्यायों का समवायसम्बन्ध होरहा है, ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना, कारण कि कथंचित् तादात्म्यसम्बन्ध के अतिरिक्तपने करके समवाय सम्बन्ध का पूर्व प्रकरणों में निराकरण किया जा चुका है । अर्थात्-समयाय का अर्थ कथञ्चित् तादात्म्य है । कथञ्चित् तादात्म्य सम्बन्ध से जुड़ रहे पदार्थों में सवथा भेद नहीं बन पाता है। एक बात यह भी है कि पर्यायों से सर्वथा भिन्न होरहे द्रव्यों के सद्भाव की सिद्धि यदि मानी जायगी तो वैशेषिकों के यहां पर्यायों की चारों ओर कल्पना करना व्यर्थ होजायगा अर्थात्-उष्णता से सर्वथा न्यारी यदि अग्नि रक्षित रह सकती है। तो पीछे अग्नि पर उष्णता का बोझ लादना निरर्थक है इस ढंगसे तो कोई किसी का प्रात्मभूत स्वभाव या स्वभावों का प्रात्मभूत आश्रय नहीं ठहर पायगा सर्व निराधार निराधेय ये मारे मारे फिर कर नष्ट होजायगे। यदि भेद--वादी वैशेषिक पर्यायों से द्रव्य को भिन्न मानने के लिये उनके अपने अपने नियत अनेक कार्यों की कल करेंगे तबतो भिन्न भिन्न पर्यायों के अनेक सम्बन्धा की सिद्धि हाजाने से पुनः उनके नियोजक कारण हुये अन्य पर्यायों की कल्पना करते रहने का प्रसंग आजाने से अनवस्था दोष आता है अर्थात्-भिन्न द्रव्यों की भिन्न पर्यायों को नियत करने के लिये नाना काय नियामक माने जायगे, पुन: उन कार्यों के नियोजक सम्बन्ध अनेक माने जायंगे, सम्बन्ध भी भिन्न ही रहेगे उनका नियत करने के लिये पुनः अन्य पर्यायों की आवश्यकता होगी, यों चाहे कितनो भी लम्बा पंक्ति बढा लीजाय अनवस्था दोष मनिवार्य है। यदि वैशेषिक बहुत दूर भी जाकर अनवस्था के डर से अन्य पर्यायोंके साथ द्रव्य का तदास्मकपन स्वीकार कर लेंगे तो प्रथम से ही पर्यायोंके साथ द्रव्य का उदात्मकपन स्वीकार कर लिया जाय और ऐसा होने पर पर्यायों करके द्रव्य द्रवण करने योग्य यानी प्राप्त करने योग्य नहीं ठहर पाती है क्योंकि कथंचित् भिन्न होरहे पदार्थों में ही प्राप्यप्रापक भाव बनता है, सर्वथा भिन्नों में नहीं। देवदत्तको ग्राम की प्राप्ति होना भिन्न प्रकार का कार्य है । अतः भेद पक्षमें भी वह बन सकता है यों तो द्रव्यपन या वस्तुपन करके देवदत्त और ग्राम में भी अभेद माना जासकता है। किन्तु यहां द्रव्य और
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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