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________________ श्लोक-वातिक स्भाव पिण्ड-स्वरूप होरहे द्रवण क्रियापरिणत द्रव्य हैं, भविष्य में कहे जाने योग्य जीव और का को मिला कर छह द्रव्य होजाते हैं। स्वपरप्रत्ययोत्पादविगमपर्यायै यते द्रवन्ति व तानीति द्रव्याणि, कर्मकत साधनत्वोपपत्तेः द्रव्यशब्दस्य स्याद्वादिना विराधानवतारात् । सर्वथैकांतवादिनां तु तदनुपपत्तिविरोधात् । द्रव्यार्यायाणां हि भेदैकांते न द्रव्याणां पर्यायैवणं तथा स्वयमसिद्धत्वात् । सिद्धरूपैरेव हि देवदत्ताभिः प्रसिद्धसत्ताका ग्रामाद्रयो द्रूयमाणा दृष्टाः न पुनर सिद्धसत्ताकैरसिद्धसत्ताका वनध्यापुत्रादिभिः कूर्म रोमादय इति । न च द्रव्येभ्यः पर्यायाः पृथसिद्धसत्वाः पर्यायत्वविरोधात् द्रव्यांतरवत्-द्रव्यपरतंत्राणामेव स्वभावानां पर्यायत्वोपपत्तः। जिस प्रकार घृत, तैल जल, यथायोग्य प्रागे, पीछे, वह जाते हैं, उसी प्रकार स्व को और पर को कारण मान कर हुये उत्पाद और व्ययसे युक्त होरहे पर्यायों करके जो बहाये जारहे हैं। अथवा उन उन पर्यायों को वहाती हयीं जो गमन कर रही हैं इस कारण वे द्रव्य हैं। द्रव्य शब्द के कर्म-साधनपना और कर्तृ साधनपना बन जाता है स्याद्वादियोंके यहां कोई विरोधदोष नहीं उतरता है। हां सर्वथा एकान्तवादियों के यहां तो विरोध होजाने से वह कर्मपना और कर्तृपना एक में नहीं बन पाता है। अर्थात्- "द्र गतौ" धातु से कर्म या कर्ता में यत् प्रत्यय करने पर द्रव्य शब्द बन जाता है नदी का पानी स्वयं नीचे को वह जाता है और नहर, वम्बा, आदि का जल इष्ट स्थानों पर नीचे की ओर वहा दिया जाता है । उसी प्रकार सम्पूर्ण द्रव्य प्रतिसमय उत्पाद व्ययवाले अनेक पर्यायों को धारते हैं, कभी द्रव्य स्वतंत्र होकर पर्याय द्रव्य के पराधीन होजाती है। और कदाचित् पर्याय स्वतंत्र होकर द्रव्य की परतंत्रता विवक्षित होजाती है। रूक्ष भोजनको विशेष प्रयत्न करके लीला जाता है। किन्तु चिकना, पतला, भोज्यपदार्थ स्वयमेव लिल जाता है। इसी प्रकार पर्यायें द्रव्य को तीनों काल तक वहीं बहा रही हैं अथवा अन्वित द्रव्य ही अनेक पर्यायों में अनुगत होरहा तीनों काल बहा जा रहा है। अनेकान्त वादियोंके यहां विवक्षा अनुसार सब व्यवस्था बन जाती है। यदि द्रव्य और पर्यायों का एकान्तरूपसे भेद मान लिया जावेगा तो द्रव्योंका पर्यायों करके अनुगमन होना नहीं बन सकेगा क्योंकि तिस प्रकार वे पर्यायें स्वयं प्रसिद्ध हैं। प्रात्मलाभ कर चुके सिद्ध स्वरूप ही होरहे देवदत्त, जिनदत्त, आदिकों करके द्रवण या गमन किये जारहे वे ग्राम, नगर, पादि देखे जा चुके हैं जिनकी कि सत्ता प्रसिद्ध है । प्रसिद्ध सत्ता वाले वन्ध्यापुत्र अश्वविषाण आदि करके अप्रसिद्धसत्तावाले कच्छपरोम, गगनकुसुम, आदिक प्राप्त हो रहे फिर नहीं देखे गये हैं । सर्वथा भेदवांदियों के यहां द्रव्यो से सर्वथा पृथक् होरहे पर्यायों की सत्ता सिद्ध नहीं है क्योंकि यों पर्यायपन का विरोध हो जावेगा जैसे कि एक विवक्षित्त द्रव्य की पर्याय दूसरे अप्रकृत द्रव्य की पर्याय नहीं कहीं जाती है। अर्थात्-धर्म द्रव्य की पर्याय ज्ञान नहींहै, कारण कि धर्मद्रव्यसे ज्ञान सर्वथा भिन्न है । उसी प्रकार अग्नि से उष्णता को सर्वथा भिन्न मानने पर उधर उष्णतारहित अग्नि मर जावेगी और इधर प्राधार रहित हो रही उष्णता नष्ट हो जावेगो, सिरको धड़से अलग कर देने पर वह मनुष्य
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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