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________________ पंचम-अध्याय गगनस्य प्रमाणांतरत्वतः साधयिष्यमाणत्वाच्च । ततो न धर्मादीनामजीवादीनां दिग्द्रव्यरूपतोपसंख्यातव्या । वैशेषिक अपने पक्षका अवधारण करने के लिये आक्षेप करते हैं कि इस प्रकार तो सूर्यके उदय, अस्तमन, दायाँ, वायां, आदि के वश से ही आकाश की प्रदेश-श्रेणियों के समान पृथिवी आदिकों में ही परम्परा विना आदित्य के उदय आदि से ही पूर्व, पश्चिम, आदि ज्ञानों की सिद्धि हो जायगी, अतः आकाश के प्रदेशों की श्रेणियों की कल्पना करना भी व्यर्थ ही रहो । यों कहने पर तो ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि पूर्व दिशा में पृथिवी, पर्वत, नदी यादिक हैं इत्यादिक न्यारे आधार और न्यारे प्राधेय अनुसार व्यवहार हो रहे देखे जाते हैं, अतः पृथिवी आदिकों का आश्रय हो रहीं आकाश के प्रदेशों की पंक्तियों की छहों ओर या दशों ओर कल्पना करना सार्थक है। दूसरी बात यह है कि अन्य अन्य तर्क, अनुमान, या आगम प्रमाणों से हम भविष्य ग्रन्थ में आकाश को साध देवेंगे, अतः सर्व द्रव्यों को युगयत् अवकाश होने के लिये आकाश द्रव्य का मानना क्लुप्त है । उसी की कल्पित श्रेणियों से दिशा के कर्तव्य का निर्वाह कर दिया जाता है । तिस कारण सूत्रोत धर्म आदि "अजीवकायों" को (में) अथवा जोव, अजोव, आदि तत्वोंको (में) एक स्वतन्त्र न्यारे दिग्द्रव्य स्वरूपपन का नहीं उपसंख्यान करना चाहिये अर्थात्-सूत्रकार ने द्रव्य या तत्वों के गिनाने में कोई त्रुटि नहीं रक्खी है, दिशा द्रव्य आकाश स्वरूप है। पृथिव्यादिरूपता स्कन्धस्वरूप एवाजीवपदार्थ इत्यप्ययुक्तं, धर्माधर्मादीनामपि ततो भिन्नस्वभावानामजीवद्रव्याणामग्रे समर्थयिष्यमाणत्वात् । पुद्गलद्रव्यव्यतिरेकेण रूपस्कंधस्यासंभवाच्च सूक्तं धर्मादय एवाजीवपदार्था इति । यहां कोई चार्वाक या बौद्ध कहते हैं कि पृथिवी, पर्वत, नदी, जल, आदि पिण्ड-स्वरूप के रूपस्कंध स्वरूपी ही अजीव पदार्थ हैं, कोई न्यारा अमूर्त अजीव द्रव्य नहीं (यहां तावत् शब्द व्यर्थ दीख रहा है) ग्रन्थकार कहते हैं कि यह कहना भी प्रयुक्त है क्योंकि उस रूपस्कन्ध से भिन्न स्वभाव वाले धर्म, अधर्म आदि अजीव द्रव्यों का भी अग्रिम ग्रन्थ में समर्थन किया जानेवाला है तथा पुद्गल द्रव्य के अतिरिक्त सौत्रान्तिकों के अभीष्ट हो रहे रूपस्कन्ध का असम्भव है, अतः धर्म आदिक ही अजीव पदार्थ हैं, इस प्रकार सूत्रकार ने इस सूत्रमें बहुत अच्छा कहा है, चार ये और कहे जाने वाले काल द्रव्य इन पांच द्रव्यों से अधिक या न्यून अजीव पदार्थ नहीं हैं। _ सूत्रकार महोदय के प्रति-किसी विनीत पण्डित का प्रश्न है कि प्रायः सभी दार्शनिकों के यहाँ द्रव्यों की मुख्यता से तत्वों की व्यवस्था की गई है तथा "मतिश्रुतयोनिबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु" "सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य" यहां द्रव्यों को कहा गया है वे द्रव्य कौन है ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्र को कहते हैं द्रव्याणि ॥२॥ . उक्त धर्म आदिक चार प्रजीवकाय माने जाचुके द्रव्य स्वरूप हैं अर्थात्-धर्म आदि। चार पदार्थ गुण या पर्याय स्वरूप नहीं हैं किन्तु अनेक अनुजोवो, प्रतिजीवी, आदि गुणों के अविष्व
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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