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________________ १४ श्लोक-वार्तिक में उस व्यभिवारी हेतु से दिशा द्रव्य की सिद्धि कैसे होसकती है ? अर्थात्-नहीं । भावार्थ-जो दिशा द्रव्य के लिये उपाय विचार रक्खा है उसी से आकाश प्रदेश श्रेणियों के विषय में हुये अन्योन्याश्रय का परिहार हो जाता है प्रत्युत वैशेषिकों के ऊपर अनवस्था और व्यभिचार दोष अधिक प्राजाता है "इत इदमिति यतस्तद्दिश्यं लिङ्गम्" इस वैशेषिक सूत्र द्वारा न्यारे दिशा द्रव्य को मानना अनुचित है। विषुवति दिने यत्र सवितोदेति स पूर्वो दिग्भागो, यत्रास्तमेति सोऽपर इति दिग्भेदेषु पूर्वापरादिप्रत्ययसिद्धौ गगनप्रदेशपंक्तिष्वपि तथैव तसिद्धिरस्तु कि.मत्र दिग्द्रव्यांतरकल्पनया तद्देशद्रव्यकल्पना प्रसंगात् । अयमतः पूर्वो देश इत्यादिप्रत्ययस्य देशद्रव्यमंतरेणानुपपत्तः पृथिव्यादिरेव देशं द्रव्यमित्ययुक्त, तत्र पृथिव्यादिप्रत्ययोत्पत्तेः । पूर्वादिदिक्कृतः पृथिव्यादिषु पूर्वदेशादिप्रत्यय इति चेत्, पूर्वाद्याकाशकृतस्तत्रैव पूर्वादिदिक्प्रत्यया स्त्विति व्यर्थी दिक्कल्पना। पन्द्रह मूहूर्त का दिन और पन्द्रह मुहूर्त की रात यों दिन रात जिस दिन समान हो जाते हैं छः छः महीने पीछे आने वाले उस विषुवान् दिन में जिस दिशा में सूर्योदय होता है वह भाग पूर्व दिशा सम्बन्धी है और उसी दिन जहाँ सूर्य अस्त होजाता है वह दिशाका अंश पश्चिम कहा जाता है, इस प्रकार वैशेषिक दिशाओं के भेदों में यदि पूर्व, पश्चिम, आदि ज्ञानों के हो जाने की सिद्धि मानेंगे तब तो आकाश की प्रदेश-पंक्तियों में भी तिस ही प्रकार दिन, रात, के अवसर पर सूर्यके उदय, अस्त, अनुसार उन पूर्वादि दिशाओं की सिद्धि हो जाओ, यहां व्यर्थ न्यारे दिशा द्रव्य की कल्पना करके क्या लाभ निकला? यदि इसी प्रकार लोक व्यवहार की थोड़ी थोड़ी भित्ति पर न्यारे न्यारे द्रव्यों की कल्पता की जागी तो देश द्रव्य की कल्पना करने का भी प्रसंग आयगा । देखिये यह इससे पूर्व देश है, यह देश इससे पश्चिम है, यह मालव देश है, इत्यादिक ज्ञानों का होना स्वतन्त्र देश द्रव्य के बिना नहीं बन सकता है। यदि वैशेषिक यों कहैं कि पर्वत, नदी आदि स्वरूप पृथिवी, जल, आदिक नियत द्रव्यही तो देश द्रव्य हैं, न्यारे देश द्रव्यको हमें मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। प्राचार्य कहते हैं कि यह कहना प्रयुक्त है क्योंकि पृथिवी आदि द्रव्योंमें यह पृथिवी है, यह जल है. इत्यादि ज्ञान ही उपज सकते हैं. यह पूर्व देश है यह पश्चिम देश है ये विशिष्ट-ज्ञान तो पृथिवी आदिक से नहीं उपज पाते हैं। यदि वैशेषिक यों कहैं कि पूर्व प्रादि दिशाओं द्वारा पृथिवी आदिकों में पूर्व देश, दक्षिण देश, आदि ज्ञान कर दिये जाते हैं। यों कहने पर तो ग्रन्थकार कहते हैं कि तबतो पूर्व प्राकाश या पश्चिम आकाश सम्बन्धी प्रदेश श्रेणियों द्वारा उन दिशाओं में ही पूर्व आदि दिशा के ज्ञान हो जाओ, इस अवस्थामें न्यारे दिशा द्रव्य की कल्पना करना व्यर्थ पड़ती है। नन्वेवमादित्योदयादिवशादेवाकाशप्रदेशश्रेणिष्विव पृथिव्यादिष्वेव पूर्वाग्रादिप्रत्यय सिद्धेराकाशश्रेणिकल्पनाप्यनथिका भवत्विति चेत् न, पर्वस्यां दिशि पृथिव्यादय इत्याद्याधाराधेयव्यवहारदर्शनात् । पृथिव्यायधिकरणभूताया गगनप्रदेशपंक्तेः परिकल्पनस्य सार्थकत्वात्
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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