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पंचम-अध्याय
तसिद्धौ तस्य परावृत्त्यभावप्रसंगात । परस्परापेक्षयता तसिद्धावितरेतराश्रयणादुभयास प्रसवते रिति चेत्, दिक्प्रदेशेष्वपि पूर्वापरादिप्रत्ययोत्पत्तौ समः पर्यनुयोगः। द्रव्यांतरपरिकल्पनायामनवस्थाप्रसंगश्च । यथैव हि मूर्तद्रयमवधिं कृत्वा मूर्तेष्वेवेदमम्मात्पश्चिमेनेत्यादिप्रत्यया दिग्द्रव्यहेतु कास्ततो दिग्भेदमवधि कृत्या दिग्भेदेप्वेवेयमितः पूर्वा पश्चिमेयमित्यादिप्रत्यया द्रव्यांतर हेतुकाः सन्तु विशिष्ट प्रत्ययत्वाविशेषत् तद्भेदेष्वपि पूर्वाएरादि-प्रत्ययाः परद्र व्यहेतुका इत्यनवस्था । दिक्ष भेदेषु द्रव्यांतरमंतरेण पूर्वापगदिप्रत्यय न्योत्पत्तौ तेनैव हेतोरनैकांतिकस्यात्कुतो दिक् पिद्धिः।
___ स्वपक्ष का अवधारण करते हुये वैशेषिक यहां कटाक्ष करते हैं कि इस प्रकार आकाश की प्रदेशपंक्तियों में भी पूर्व, पश्चिम प्रादि ज्ञान भला किस कारण से सिद्ध होयंगे बताओ? यदि जैन यों कहैं कि अाकाश के स्वकीय स्वरूप से ही आकाश की प्रदेश-श्रेणियों में उस पूर्व, पश्चिम, आदि ज्ञान होने की सिद्धि होजायगी, ऐसा कहने पर तो हम वैशेषिक कहते हैं कि उस पूर्व, पश्चिम, आदिके ज्ञानोंके परिवर्तन नहीं होसकने का प्रसंग अावेगा अर्थात्-मथुरा से पटना पूर्व है वे ही पूर्व दिशा के प्रदेश कलकत्ता की अपेक्षा पश्चिम दिशा सम्बन्धी हो जाते हैं, जो ही निषध पर्वतका पूर्वीय छोर यहां से पूर्व दिशा में है वहीं विदेह क्षेत्र वालों के लिये पश्चिम दिशा स्वरूप होकर बदल जाता है। यदि आकाशकी प्रदेशपंक्तियों में पूर्व, पश्चिम, दिशा को नियत करादिया जावेगा तो दिशाओं का बदलना नहीं होसकेगा।
अब यदि जैन परस्पर की अपेक्षा आकाश प्रदेशो में पूर्व पश्चिमपन की सिद्धि करोगे तो तुम्हारे यहां भी इतरेतराश्रय दोष होजाने से दोनों अपेक्षकोंके अभाव होजाने का प्रसंग पाता है।
यों कटाक्ष हो चुकने पर प्राचार्य कहते हैं कि तुम वैशेषिकों के यहां दिशासम्बन्धी प्रदेशोंमें भी पूर्व पश्चिम, आदि ज्ञानों की उत्पत्ति में यह कुचोद्य समान रूपसे लागू हो जाता है अर्थात्वैशेषिकों ने दिशा द्रव्य एक माना है "उपाधिभेदादेकापि प्राच्यादि-व्यपदेशभाक्” उपाधियों के भेद से दिशा द्रव्य के छह या दश भेद कर लिये गये हैं यहां भी अन्योन्याश्रय दोष तदवस्थ है परस्पर में एक दूसरे की या मूर्त द्रव्य की अपेक्षा है । यदि मूर्त द्रव्यों में पूर्वापरादि का ज्ञान कराने के लिये दिशा द्रव्य को और दिशा द्रव्य में पूर्व, पश्चिमादि का ज्ञान कराने के लिये अन्य द्रव्यों की लम्बी कल्पना करते चले जावोगे तो वैशेशिकों के ऊपर अनवस्था दोष होजाने का प्रसंग आता है कारण कि जिस ही प्रकार मूर्त द्रव्य को अवधि करके मूतं द्रव्यों में ही यह इससे पश्चिम दिशा-वर्ती है यह इससे उत्तरदिशावत्ती है। इत्यादिक ज्ञान वैशेषिकों के यहां दिशा द्रव्य को कारण मानकर उपज जाते हैं उसी ढंगसे दिशा द्रव्य के भेदों की अवधि कर, पूर्व, अपर, आदि दिशा भेदों में ही ( भी) यह इससे पूर्व दिशा है और यह इससे पश्चिम दिशा है इत्यादिक ज्ञान अन्य द्रव्य को कारण मान कर हो जावो, क्योंकि विशिष्टज्ञानपना मूर्त द्रव्य और दिशा द्रव्योंको कारण मानकर हुये दोनों ज्ञानों में अन्तर रहित है तथा दिशाके उन भेदों में भी पूर्व, पश्चिम, आदि ज्ञान अन्य तीसरे द्रव्य को हेतु मान कर होजायंगे यों चौथे, पांचवे, आदि द्रव्यों को कारण मानते हुये अनवस्था दोष आता है।
यदि आप वैशेषिक दिशाओं के भेदों में अन्य द्रव्य के विना ही पूर्व, पश्चिम आदि ज्ञानोंकी उत्पत्ति . ' होने को मानेंगे तो उस करके ही तुम्हारे विशिष्ट प्रत्ययत्व हेतु का व्यभिचार दोष श्वाता है, ऐसी दशा