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श्लोक-वार्तिक
सम्भव है कि वैशेषिकों का यह मन्तव्य होय कि पूर्व, पश्चिम, आदिक होरहे ज्ञान विशेष , (पक्ष) किसी विशिष्ट पदार्थ को हेतु मान कर उपजे हैं (साध्य) विशिष्ट प्रत्यय होने से (हेतु) दण्डी कुण्डली, आदि प्रत्ययों के समान (अन्वय दृष्टान्त)। जो कोई वह विशिष्टपदार्थ उस ज्ञान का हेतु होरहा है वह तो परिशेषन्याय से दिशा द्रव्य सिद्ध होजाता है क्योंकि प्रसंगप्राप्त होरहे अन्य प्रात्मा, प्राकाश, पृथ्वी ग्रादि का प्रतिषेध कर दिया जाता है, तिस कारण आकाशसे निराला स्वतन्त्र द्रव्य दिशा का मानना चाहिये । अर्थात--पूर्व, पश्चिम, आदि ज्ञानों का कारण आत्मा नहीं होसकता है क्योंकि स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष के अतिरिक्त ज्ञानों द्वारा पूर्व, पश्चिम, आदि की व्यवस्था हो रही है, यह इससे पूर्व है, यह यहां से पश्चिम है, इस ज्ञान का कारण आकाश भी नहीं है क्योंकि दिशानों की आपेक्षिक परावृत्ति देखी जाती है। शब्द का समवायिकारण आकाश होता है, दिशा नहीं। पृथ्वी आदिक छह द्रव्य भी उक्त प्रत्यय के कारण नहीं हैं क्योंकि इन में विलक्षणता प्रतीत होरही है। अतः परिशेष से नवमा स्वतंत्र दिग्द्रव्य स्वीकार करना पड़ता है।
आचार्य कहते हैं । कि वैशेषिकों का यह मन्तव्य प्रशंसनीय नहीं है। क्योंकि उस पूर्व, पश्चिम, आदि ज्ञानों के हेतुपने करके आकाश का निषेध करने के लिये अशक्ति है। उस आकाश की प्रदेश-श्रेणियों में ही सूर्य के उदय अस्त आदि के वश से पूर्व पश्चिम आदि दिशाओं के व्यवहार प्रसिद्ध होजाते हैं । अर्थात्-सम्पूर्ण अलोकाकाश के ठीक मध्य में लोकाकाश विराजमान है । लोकाकाश का ठीक मध्य सुदर्शन मेरु की जड़ में विराज रहे आठ प्रदेश हैं। चार वरफियों के ऊपर रक्खे हुये चार वरफियों के समान उन आठ प्रदेशोंके छहू ओर परमाणु के समान नापलिये गये आकाश प्रदेशों की पंक्ति अनुसार छः दिशायें नियत होरही हैं । अथवा भ्रमण करते हुये सूर्यके उदय प्रस्त डेरी वाजू, सूधी लांग, ऊपर और नीचे अनुसार छह दिशायें स्वीकार करली जाती हैं, इस दूसरी व्यवस्था के अनुसार दिशाओंकी ढाई द्वीप में परावृत्ति होजाती है। बात यह है कि आकाश द्रव्य का मानना अवगाह देनेकेलिये आवश्यक ही है । आकाश के अतिरिक्त कोई निराला अनेक गुणों का पिण्ड दिशा द्रव्य नहीं है। सूर्यके उदय आदि के अधीन पूर्वदिशा, पश्चिम दिशा आदि व्यवहार प्रसिद्ध हो रहे हैं। तथा सूर्योदय की ओर बन गयी पूर्व दिशा आदि के सम्बन्ध से वनारस, पटना आदि मूर्त द्रव्यों में या सिन्धुनदी आदि में पूर्व, पश्चिम, आदि ज्ञानविशेषों की उत्पत्ति होजाती है, अतः परस्पर की अपेक्षा करके मूर्त द्रव्य ही उन एक दूसरों में पूर्व, पश्चिम, आदि ज्ञान को उपजाने के कारण नहीं हैं। क्योंकि यदि मथुरा की अपेक्षा पटना को पूर्व में और पटना की अपेक्षा मथुरा को पश्चिम में जान लेना मथुरा, पटना, इन मूर्त द्रव्यों की अपेक्षा से ही होरहा माना जावेगा तो दानों में से एक के पूर्व पनकी नहीं सिद्धि होने पर शेष बचे हुये दूसरे का पश्चिमपना सिद्ध नहीं हो सकेगा और उस का पश्चिमपना सिद्ध नहीं होनेपर दो में से प्रकरण-प्राप्त इस एकका पूर्वपना नहीं बन सकता है,अतः अन्योन्याश्रय दोष होजाने से दोनों मूर्त द्रव्यों के पूर्व पश्मिपन के असद्भाव का प्रसंग आवेगा इस कारण मूर्त द्रव्य से अतिरिक्त अखण्ड अाकाश की प्रदेश श्रेणियों को दिशा द्रव्य मानकर मूर्त द्रव्यों में उस दिशा करके पूर्व पश्चिम आदि व्यवहारों को साध लेना चाहिये, वैशेषिकों के यहां दीधितिकार पण्डितजी तो दिशा को ईश्वर से अतिरिक्त पदार्थ नहीं मानते हैं। किन्तु अचेतन दिशा का चेतन ईश्वर में अन्तर्भाव करना कठिन है । हां आकाश में सुलभतया अन्तर्भाव हो सकता है।
नन्वेवमाकाशप्रदेशश्रेणिष्वपि कुतः पूर्वापरादिप्रत्ययः सिद्ध्येत् १ स्वरूपत एव