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________________ श्लोक-पातिक जाता है। यों तीसरी कारिकाका व्याख्यान है, पंक्तिके सबसे पहिले 'यथा' का इस ' तथा' के साथ सम्बन्ध कर लेना चाहिये। बंध परिणति में दोनों का कथंचित् एकत्व होजाता है. अतः तादात्म्य की मोर दुलक रहा संयोग सम्बन्ध बेचारा एक अनिर्वचनीय योजक है, जोकि बंधे हुये पदार्थों में तादात्म्य सम्बन्ध को ढालता हुमा संयोगको भी ढाल देता है,पदार्थोंकी बंध परिणतिका प्रत्यक्ष अवलोकन कर इस सम्बन्ध को वाचक शब्दों के बिना प्रवक्तव्य ही समझ लो, किसी पदार्थ के वाचक शब्द यदि नहीं मिलें तो उस वस्तुभूत निर्विकल्पक तथ्य प्रमेय का अपलाप नहीं किया जा सकता है । पूर्वापरविदां बंधस्तथाभावात् परो भवेत् । नानाणुभावतः सांशादणोर्बन्धोऽपरोस्ति किम् ॥ ४॥ निरंशत्वं न चाणूनां मध्यं प्राप्तस्य भावतः। तथा ते संविदोर्मध्यं प्राप्तायाः संविदः स्फुटम् ॥ ५ ॥ बौद्ध पण्डित अनेक स्थलों पर यह दक्षता ( पौलिसी ) कर जाते हैं, कि वहिस्तत्ववादी बन कर झट अन्तस्तत्व-वादी का वेष ( पार्ट ले लेते हैं, सौत्रान्तिक बौद्धों के यहां वहिरंग स्वलक्षण अन्तरंग स्वलक्षण यों जड़, चेतन, अनेक तत्व माने गये हैं, किन्तु योगाचार के यहां केवल विज्ञान स्वलक्षण ये अन्तस्तत्व ही स्वीकार किये गये हैं, अतः विज्ञानाद्वैतवादी योगाचार के मतानुसार पूर्वक्षणवर्ती और उत्तरक्षणवर्ती विज्ञानों का सन्तान या संसर्ग अथवा बंध माना ही गया है, तिसी प्रकार लड़ी में बंधे हुये मोतियों के समान ज्ञानों का परस्पर बंध होरहा क्या भिन्न पदार्थ होगा ? अर्थात् -नहीं ? । इसी प्रकार अनेक अणुओं के तथा-भाव से होरहा अंश-सहित अणु के साथ बन्ध क्या अपर पदार्थ होगा? अर्थात्-जैसे वैशेषिकों ने विशिष्ट संयोग को बंध मान कर द्रव्यों से उस संयोग को भिन्न गुण माना है, उस प्रकार बौद्ध या जैन उस बंध को भावों से भिन्न नहीं मानते हैं. अणु के एक देश से दूसरे अणु का संसर्ग होना प्रतीत होता है, अतः अणु को सांश मानने में कोई क्षति नहीं है अनेक अणुओं के मध्य में प्राप्त होरहे अणु का भावदृष्टि से निरंशपना नहीं है,तिस प्रकार होने पर ही तो तुम योगाचार बौद्धों के यहां दो संवित्तियों के मध्य में प्राप्त होरही एक संवित्ति का स्फुट रूप से सांशपना बनेगा ज्ञान परमाणुषों के सांशपन समान पुद्गल परमाणुषों का शक्ति अपेक्षा सांशपना निर्वाध है। संविदद्वततत्त्वस्यासिद्धौ बंधो न केवलं। स स्यात् किन्तु स्वसंतानाधभावात्सर्वशून्यता ॥ ६॥ तत्संविन्मात्रसंसिद्धौ संतानस्ते प्रसिद्धयति । तद्भधः स्थितोनां परिणामो विशेषतः ॥७॥
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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