SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 390
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम अध्याय ३७३ जब कि जगत् में अनेक जड़, चेतन, पदार्थ, या स्थूल, सूक्ष्म पदार्थ, अथवा कालान्तर स्थायी पदार्थ स्पष्ट प्रत्यक्ष गोचर होरहे हैं। ऐसी दशा में योगाचारों का संवित्-प्र ेत सध जाना असम्भव हैं, अतः विज्ञानाद्वैत तत्व की सिद्धि नहीं होसकने पर केवल वह प्रसिद्ध बंध ही तो नहीं होसकेगा किन्तु स्वकीय सन्तान आदि का प्रभाव होजाने से सम्पूर्ण पदार्थों के शून्यपन का प्रसंग श्राजावेगा और उस सन्मित्रत्व की भले प्रकार सिद्धि होचुकने पर तो तुम वौद्धों के यहां सन्तान पदार्थ श्रवश्य प्रसिद्ध होजाता है, उसी सन्तान के समान बं पदार्थ भी पदार्थों का परिणाम होकर व्यवस्थित है । कोई अन्तर नहीं है । अर्थात् - सम्वेदनाद्वत वादियों के सिद्धान्त की सिद्धि नहीं होसकतो है । उन्हीं युक्तियों करके स्वकीय सन्तान, परकीय सन्तान प्रथवा अन् पदार्थों का प्रभाव होजाने से शून्यवाद जाता है जो वहिरंग ज्ञेयको नहीं मान कर अन्तस्तत्व ज्ञ' नको ही मान बैठा है और अन्य आत्माओं के विज्ञानों का स्वसम्वेदन नहीं होने से परकीय ज्ञान सन्तानों कर प्रभाव कह चुका है । यों संकोच होते होते अपने भूत भविष्य क्षणिक ज्ञानों का भी प्रभाव मान चुकेगा वह बेचारा एक वर्तमान काल के ज्ञान स्वलक्षण का सद्भाव नहीं साध सकता है। क्योंकि नाकारणं विषयः " बौद्धों ने ज्ञान के कारण को ही ज्ञान का विषय मान रक्खा है, ज्ञान को जानने वाले द्वितीय ज्ञान के अवसर पर प्रथम ज्ञान जो विषय था वह नष्ट होचुका और पूर्व ज्ञान समय पर उसका प रज्ञाता ज्ञान उपजा हो नहीं था, ऐसी दशा में सर्वशून्यता छा जाती है, अनेकों में होनेवाले बंध बेचारे को कौन पूछता है । हां सम्वेदनाद्वत की सिद्धि यदि मानी जायगी तब तो सन्तान और बंध प्रवर" मानने पड़ेंगे जो कि बंध उन पदार्थों की वास्तविक परिणति के वश है, सांवृत या कल्पित नहीं है । 1 शून्यवादिनपि संविन्मात्रमुपगन्तव्यं तथ्य चावश्यं कारणमन्यथा नित्यत्वप्रसंगाव कार्यमभ्युपगंतव्यमन्यथा तदवस्तुत्वापत्तेरिति तत्संतान सिद्धिः । तत्सिद्धौ च कार्यकारणत्रिदोर्मध्यमध्यासीनायाः संविदस्तत्संबंधे सांत्वाभाववत्परानां मध्यमधिष्ठितोपि परमाणोग्नंशन्त्रमिद्धे स्तन्मर्व समुदाय विशेषोप्यनेकपरिणामो बंध प्रसिद्धयत्ये! | शून्यवादी पण्डित करके भी केवल शुद्ध सम्वेदन तो अवश्य ही स्वीकार कर लेना चाहिये श्रन्यथा स्वपक्ष की सिद्धि और परपक्ष में दूषण देना ही असम्भव होजायेगा । दूसरों को ठगने वाले पण्डित आत्म-वंचना तो नहीं करें । सम्वेदन के विना तो पर प्रत्यायन क्या स्वप्रत्यायन भी नहीं होपाता है | और उस सम्वेदन का कोई कारण भी अवश्य मानना पड़ेगा अन्यथा यानी कारण माने विना उस सम्वेदन के नित्य होजाने का प्रसंग प्राजावेगा " सदकारणवन्नित्यं " तथा उस सम्वेदन का कोई कार्य भी स्वीकार करना चाहिये अन्यथा यानी सम्बित्ति के कार्य को माने विना उस सम्वेदन के अवस्तुपन का प्रसंग जावेगा " अर्थक्रियाकारित्वं वस्तुनो लक्षणं " । यों उस सम्वेदन तत्व के पूर्वोत्तरवर्त्ती सन्तान की सिद्धि हो ही जाती है । तथा उस सन्तान की सिद्धि होचुकने पर कार्य सम्वेदन और कारण - सम्वेदन के मध्य में
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy