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पंचम-अध्याय
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उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, होते रहें ऐसे अनन्तानन्त से स्याद्वादियों को कोई भय नहीं है, आकाश के समान अनन्त सर्वत्र किसी न किसी ढग से प्रत्येक वस्तु में प्रविष्ट होरहा है, इस वस्तु-स्वभाव के लिये हम क्या कर सकते हैं, वस्तु को अनेक धर्म-प्रात्मकपन रुनता है।
तथा नित्यपन, अनित्यपन दोनों धर्मों की एक ही अधिकरण में वृत्ति होजाने करके प्रतीत होजाने से वैयधिकरण्य दोष को भी वस्तु में स्थान नहीं मिलता है । मेचक ज्ञान के दृष्टान्त से संकर का और सामान्य विशेष के दृष्टान्त से व्यतिकर दोष का प्रत्याख्यान कर दिया जाता है। पक्षपात को छोड़ कर उभय प्रात्मक वस्तु का निर्णय होचुकनेपर संशय दोष भी हट जाता है, चलायमान ज्ञप्ति होती तो संशय होता जबकि उक्त दोषों रहित होरही वस्तुकी बालक बालिका तक को समीचीन प्रतिपत्ति होरही है, तो फिर अप्रतिपत्ति दोष कथमपि नहीं फटक सकता है। अतः स्याद्वाद सिद्धान्त अनुसार प्रतीत किये जा रहे वस्तु में कोई भी दोष नहीं आते हैं।
तदित्थं परापर द्रव्यम्य सल्लक्षणस्य प्रसिद्धर्न चाक्षुषमात्रयविद्रव्यं पुद्गलस्कंधसंज्ञकं प्रतिक्षेप्तु शक्य, सर्वप्रतिक्षेपप्रसंगात् ।
तिस कारण अब तक इस प्रकार शुद्ध द्रव्य और अशुद्ध द्रव्य अथवा सामान्यतः पर द्रव्य और विशेषतः जीव पुद्गल आदि अपर द्रव्य के सत् लक्षण की प्रसिद्धि होरही है । सत् लक्षण वाले नित्य, अनित्य-प्रात्मक द्रव्य की प्रसिद्धि होजाने से चक्षु इन्द्रिय-जन्य प्रत्यक्ष का विषय होरहा और पुद्गल स्कन्ध इस नाम के धारी अवयवी द्रव्य का प्रतिक्षेप नहीं किया जा सकता है। यों प्रत्यक्ष प्रमाण आदि से अनुभवे जा रहे पदार्थों का यदि निराकरण कर दिया जायेगा तब तो सभी वादियों के यहां इष्ट पदार्थों के खण्डन होजाने का प्रसंग पाजावेगा जो कि किसी को इष्ट नहीं पड़ेगा। यहां तक भेदसंघाताभ्यां चाक्षुष." इस सूत्र की संगति को वखानते हुये ग्र-थकार ने अवयवी पुद्गल स्कन्ध में द्रव्यपना अक्षुण्ण कर दिया है। सूत्रकार महाराज को उक्त सूत्ररचना भी सुसं ठित है। ... कुतः पुनः पुद्गलानां नानाद्रव्याणां संबंधी यतः स्कन्ध एकोवतिष्ठत इत्यारेकायामिदमाह ।
अग्रिम सूत्रका अवतारण यों है कि कोई जिज्ञासु यहां शंका उठाता है कि भिन्न भिन्न होरहे अनेक पुद्गल द्रव्यों का सम्बन्ध फिर भला किस कारण से होगा जिससे कि एक पौद्गलिक स्कन्धद्रव्य प्रतिष्ठित होजाय ? इस प्रकार बौद्ध मत के प्राभास अनुसार शिष्य की आशंका प्रवर्तने पर श्री उमास्वामी महाराज इस अग्रिम सूत्र को कहते हैं।
स्निग्धरूक्षत्वाबन्धः ॥ ३३ ॥ स्निग्धपन और रूक्षपन से पुद्गलों का बन्ध होजाता है। अर्थात्-अनन्त गुण वाले पुद्गल द्रव्य में दो स्पर्श गुण भी हैं, एक स्पर्शन इन्द्रिय से ही दोनों का या दोनों की परिणतियों का परिज्ञान