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लोक-वार्तिक
'एक गुणमुखेनाऽशेषवस्तुरूपसंग्रहात् सकला देश : ' 'निरंशस्यापि गुणभेदा दंश कल्पना विकलादेश: यह श्री प्रकलंक देव महाराज का वचन है। यहां ग्रन्थकार कह रहे हैं, कि प्रमाण के अधीन होकर जब सकलादेश की व्यवस्था है, तो प्रमाण द्वारा वस्तुका सर्वांग निरूपण या बहुअ'ग- प्रतिपादन होजाने पर जो उत्पाद, व्यय, धौव्यों से युक्त हो रहे सत् का प्रतिभास होरहा है, वह उभय दोष और विरोध दोष करके नहीं छुा जाता है, क्योंकि वह अनेकान्तात्मक सत् बेचारा सर्वथा नित्य और सर्वथा श्रनित्य इन दोनों दूषित एकान्तो से तृतीय ही निराली जाति का नित्यानित्यात्मक है, उस मृतु के नित्य अनित्य दोनों श्रात्मा हैं। मावा और पानी को मिला कर दूध नहीं बनाया गया है, किन्तु प्रथम मे ही दूध स्वकीय पौष्टिकत्व, द्रवरण, मिष्टता, आदि गुरणों से युक्त होकर श्रात्मलाभ कर चुका है।
बौद्धों यहां माना गया चित्र ज्ञान प्रथमसे ही नीलाकार, पीलाकार श्रादि को स्वायत्त कर रहा इन्द्र धनुष के समान बना बनाया है, वैशेषिकों के यहां सत्ता की अपेक्षा व्याप्य होरही और घटत्व, पटत्व, आदि जातियों की अपेक्षा व्यापक होरही पृथिवीत्व जाति बेचारी अनादि से अनन्त काल तक सामान्यविशेषात्मक ठहर रही मानी गई है। एक धूप-दान श्रवयवी में कुछ ऊपरले अंशों में उष्णता और निचले भाग में शीतता का जब प्रत्यक्ष होरहा है, तो यहां विरोध दोष का अवकाश नहीं है, 'अनुपलम्भसाध्यो विरोध: दोनों का एक अनुपलम्भ होता तो सहानवस्थान विरोध साधा जाता, प्रकरण प्राप्त नित्य प्रनित्यपन, का एकत्र उपलम्भ हो जाने से कोई विरोध दोष नहीं प्रांता है ।
तत एव नानवस्था वैयधिकरण्यं संकर-व्यतिकरौ वा संशयो वा यता प्रतिपत्तेरभावस्तस्यापाद्यते चित्रसंवेदनवदनुभवास्पदे वस्तुनि तदनवतारात् ।
तिस ही कारण से यानी सर्वथा नित्य और सर्वथा अनित्य से तीसरी ही ति वाली वस्तु की व्यवस्था होजाने से अनवस्था, वैयधिकरण्य, और संकर, व्यतिकर. अथवा संशय होष भी नहीं होस कते हैं, जिन दोषों के वश से कि प्रतिपत्ति नहीं होजाने के कारण उस वस्तु का प्रभाव होजाना इस आठवें दोष का आपादन किया जा सके । चित्र संवेदन या मेचक ज्ञान के समान जब अनेकान्तात्मक वस्तु प्रामाणिक पुरुषों के अनुभव में श्रालीढ होरही है, तो ऐसी प्रतीत वस्तु में उन अनवस्था आदि दोषों का प्रवतार नहीं है । अर्थात् वस्तु को नित्यपन, अनित्यपन, तदात्मक आक्रान्त मान लेने पर पुन: उत्तरोत्तर श्राकांक्षा नहीं बढ़ पाती है, जैसे कि सामान्य के विशेष हो रहे पृथिवीत्व में पुनः अन्य सामान्य विशेषों को घर देने की अभिलाषा नहीं होती है, अतः अनवस्था दोष नहीं आता है, कहीं कहीं ...तो यानी द्रव्य कर्म से भाव कर्म और भावकर्म से द्रव्य कर्म श्रादि स्थलों में अनवस्था बेचारी गुणका रूप धारण कर लेती है, जैसे कि अनेक पुरुषों की एकता सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्रों की एकता के समान गुण है, किन्तु वात, पित्त, कफ, की सूचक नाड़ियों की एकता तो त्रिदोष है ।
यहां प्रकरण में अनवस्था दोष का कोई अवसर नहीं है, उत्पाद व्ययों की अपेक्षा श्रनित्यपन और प्रोग्य की अपेक्षा नित्य वस्तु में क्रीड़ा कर रहे हैं । और अनन्त गुरणों की पर्यायों में अनन्ते,
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