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पचम अध्याय
३६३ जा सकता है ? यों धर्मों का कुछ भी निर्णय नहीं होने मे वस्तु का परिज्ञान नहीं हो सकना प्रप्रतिपत्ति है, जिसकी प्रतिपत्ति नहीं उसका प्रभाव ही माना जायेगा । यों जैनों के स्याद्वाद सिद्धान्त में उभय दोष आदि का प्रसंग श्राजावेगा इस प्रकार किसी शिष्य की सशय पूर्वक श्रारेका के प्रवर्तने पर ग्रंथकार इस समाधानकारक अग्रिम वार्तिक को कहते हैं ।
प्रमाणार्पणतस्तत्स्याद्वस्तु जात्यंतरं ततः । तत्र नोभयदोषादिप्रसंगोनुभवास्पदे ॥ ३ ॥
प्रमाण ज्ञान की प्रधानता से विचारा जाय तो वह वस्तु उन निलपन और अनित्यपन दोनों से तीसरी ही जाति की नित्यानित्यात्मक प्रतीत हो रही है, तिस कारण प्रामाणिक पुरुषों के अनुभव में स्थान पा चुकी उस वस्तु में उभय दोष, विरोध दोष आदि का प्रसंग नहीं है। बौद्धों के मेचक ज्ञान और वैशेषिकों के सामान्य विशेष ( पृथिवीत्व आदि व्याप्य भी व्यापक जातियां ) तथा सांख्यों की त्रिगुण-श्राश्मक प्रकृति इन दृष्टान्तों से आठों दोषों का परिहार होजाता है, पक्की हवेलियों में लगे हुये पत्थर के पतले पतले लम्बे ठोडों पर तीन तोन चारचार खन की गौखें ऊपर ऊपर लद रहीं देखी जाती हैं टोड़ों के बित को देख कर कितने ही पुरुष यों आशंका करते हैं, कि इतनी इमारत इन टोढ़ों पर नहीं सकती है, किन्तु जब कार्य होरहा है, पचासों वर्ष तक चार चार खन उन पर लदे हुये अटूट देखे जा रहे हैं, तथा उन छज्जों पर भीतर सामान रखना, खेलना कूदना आदि क्रियायें भी होरहीं देखी जाती हैं, तो ऐसी दशा में खटका रखने वाले पुरुषों का ज्ञान भ्रान्त होजाता है । छटांक भर की ककड़ी हजार मन के पत्थर को गिरने रोके रखती है, पतली सी डालपर अधिक बोझ लाद दिया जाता है, व्यर्थ में संशय आदि दोष उठाना ठलुम्रा पुरुषों का बेहूदा कार्य है, प्रतीत किये जा रहे पदार्थ में कोई दोष नहीं, इसको हम पूर्व प्रकरणों में भी कई बार कह चुके हैं ।
न हि सकल | देशे प्रमाणायत्ते प्रतिभा मनमुत्पादव्ययधौव्ययुक्तं तदुभयविरोधदोषाभ्यां स्पृश्यते, तस्य नित्यानित्यैकांताभ्यां जात्यंतरत्वात् ।
द्रव्य और पयायों से तदात्मक होरही वस्तु है, वस्तु के द्रव्य अंश को द्रव्यार्थिक नय जानती है, और पर्यायों को पर्यायार्थिक नय द्वारा जान कर विकलादेश द्वारा निरूपण किया जाता है, अखण्ड वस्तु केशों का निरूपण करना विकलादेश है ।
जब कि कोई भी शब्द हो अपने प्रकृत्यर्थ अनुसार वस्तु के एक गुरण को ही कहेगा अतः एक
गु की मुख्यता करके अभिन्न एक वस्तु का कथन किया जाता है, वह सकला देश है ।
सकलादेश वक्ता के पूर्व प्रकरण ज्ञान से उपजता है, और श्रोता के प्रमाण ज्ञान को उपजाता है, प्रतः सकलादेश प्रमाणाधीन माना जाता है, तथा विकलादेश नयाधीन होता है, यह प्रतिपादक के नय ज्ञान से उपज रहा सन्ता श्रोता प्रतिपाद्य के नय ज्ञान को उपजा देता है ।