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________________ 후보뽀 क्षणभावविरोधत्तद्विशेषाभावादिति । तदेतत्प्रज्ञाकरेणोक्तं तस्याप्रज्ञा विजृ भितमित्ययं दर्शयति । यहां किसी पण्डितका मन्तव्य सम्भवतः यों होय कि उत्पाद प्रादिक धर्म यदि दूसरे उत्पाद श्रादिकों के विना ही सत् स्वरूप हैं, तब तो द्रव्य भी उन उत्पाद आदिकों के बिना ही स्वतः सत् स्वरूप होजाओ, इस प्रकार सूत्रकार करके उन उत्पाद प्रादिकों से युक्त उस सत् का निरूपण किया जाना व्यर्थ है, अब यदि वैयर्थ्य दोष को टालते हुये यों कहना प्रारम्भ करो कि वे सत् में वतं रहे उत्पाद आदिक तो अन्य उत्पाद प्रादिकों करके योग होजाने से सत् स्वरूप हैं, तब तो जैनों के यहां अनवस्था दोष प्रजावेगा क्योंकि प्रत्येक उत्पाद, विनाश, आदिकों का पुनः दूसरे दूसरे उत्पाद आदि तीनों करके योग हो जाने से सत्व व्यवस्थित किया जायगा तथा पुनरपि उन तीसरे, चौथे आदि उत्पाद श्रादिकों का भी प्रत्येक प्रत्येक में अन्य अन्य उत्पाद आदि तीनों के योग से सत्पना सिद्ध होगा अतः महान् अनवस्था दोष हुआ । इस दोष को टालने के लिये कहीं बहुत दूर भी चल कर यदि उत्पाद आदिकों की स्वतः सत्ता मान लो जायगी तब तो द्रव्य के लक्षण होरहे सत् का भी स्वतः ही सत्पना होजानो, ऐसी दशा में इस सूत्र को व्यर्थ ही क्यों गढ़ा जाता है ? । जैन इस बात का भी ध्यान रक्खें कि उत्पाद आदिकों का सत् से प्रभेद होना मानने पर उनके यहाँ सत् और उत्पाद प्रदिकोंके लक्ष्यलक्षणभाव होजानेका विरोध याता है, क्योंकि प्रभेदपक्ष अनुसार उन उत्पाद प्रादि लक्षण और लक्ष्यभूत् सत् में कोई अन्तर नहीं माना गया है, यहां तक कट्टर वौद्ध पण्डित प्रज्ञाकर द्वारा बौद्धों का मत कहा जा चुका है। अब ग्रन्थकार कहते हैं, कि तिस प्रकार यह जो प्रकाण्ड बौद्ध पण्डित प्रज्ञाकर जी ने कहा है, वह सब उन पण्डित जी की प्रविचारशालिनी अप्रज्ञा को मात्र चेष्टा है नाम निक्ष ेपमात्र से जो प्रज्ञा के आकर ( खानि ) बने हुये हैं, या प्रज्ञा को बनाने वाले कहे जाते हैं, उनके कार्य प्रज्ञाशालिता के नहीं हैं, गांमों में गुड़ तक भी नहीं खाने वाले दोन भिखारी किन्हीं पुरुषों का नाम मिश्रीलाल रख दिया जाता है, कितने ही दरिद्रों के नाम लक्ष्मीचन्द्र हैं, निर्बल पुरुषों को अर्जुनसिंह नामसे पुकारा जाता है. कुरूप मनुष्य का स्वरूपचन्द्र संज्ञा करके सम्बीधन किया जाता है, इसी प्रकार प्रज्ञाकर नामधारी पण्डितजी अप्रज्ञा व्यापारके विलासमें व्यग्र बने रहते हैं, उनकी इसी प्रबुद्धिपूर्वक चेष्टा को ये ग्रन्थकार श्री विद्यानन्द स्वामी अग्रिम वार्त्तिकों द्वारा दिखलाते हैं । यथोत्पादादयः संतः परोत्पादादिभिर्विना । तथा वस्तु न चेत्केनानवस्था विनिवार्यते ॥ २ ॥ इत्यत्सर्वथा तेषां वस्तुनो भिदसिद्धितः । लक्ष्यलक्षणभावः स्यात्सर्वथैक्यानभीष्टितः ॥ ३ ॥ उत्पादव्ययत्रौव्यैक्यैर्युकं सत्समाहितं ॥ पचम- प्रध्याय
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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