SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 371
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्लोक - वातिक कर्मों, में या इनकी विशेषव्यक्तियों में 'सत् सत्, ऐसी प्रतीति विशेषता से रहित होरही है, और एक सत्ता के पुनः विशेष भेद करने वाले लिंगों का अभाव है, अतः सत्ता नाम का सामान्य एक है, हां कुछ सत्ता के विशेषरणों में न्यून अधिक करते हुये हम जैन सत्ता को एक स्वीकार कर लेते हैं, वैशेषिकों ने सर्वथा नित्य, एक, और अनेकों में समवायिनी सत्ता को स्वीकार किया है, जैन सिद्धान्त में पूर्व उक्त गाथा अनुसार सम्पूर्ण पदार्थों में ठहर रही, विश्व स्वरूप से होरहो, अनन्त पर्याों वाली उत्पाद. व्यय, ध्रौव्य, इन प्रयोजनों को साध रही, और अपनी प्रतिपक्ष-भूत अवान्तर सत्ताओं से सहित हो रही एक महासत्ता स्वीकार की गई है, जो कोई एकान्त-वादी वैशेषिक, नैयायिक, या ब्रह्माद्वत-वादी पण्डित उस सत्ता को केवल ध्रुवपन धर्म से हो युक्त होरही वखानते हैं, यानी सत् केवल ध्रौव्य से ही समाहित है, ऐसा कह रहे हैं, उन पण्डितों के एकान्त मन्तव्य का व्यवच्छेद करने के लिये सत् उत्पाद और व्यय से युक्त है. यों कह दिया जाता है, क्योंकि वह त्रिलक्षणात्मक सत् तो अनन्तानन्त पर्यायों के साथ तदात्मक होरहा है, और पर्यायें सभी उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यों करके युक्त हैं, अतः सत् स्वतः ही उत्पत्ति, विनाश, स्थितिशाली हुआ । सत् "हाँ दूसरे सत् को क्षणिक या अनित्य स्वीकार करने वाले पण्डित जो यों कह रहे हैं कि वह सत् नित्य नहीं है, एक भी नहीं है, 'सत् सत्' ऐसी अन्वय बुद्धि करके स्रोत पोत हो रहे शुद्ध सत् आकार वाली भी सत्ता नहीं है, क्योंकि सपना धर्म कोई वस्तुभूत नहीं है, प्रसत्पने की व्यावृत्ति करके उस को कल्पित कर लिया गया है, जैसे कि संसार में सच पूछो तो कोई बलवान्, ज्ञानवान्, सुखी, सुन्दर नहीं, है, केवल निर्बलता रहितपन, मूर्खतारहितपन उग्रदुःखव्यावृत्ति, कुरूप व्यावृत्ति द्वारा वैसी वैसी कल्पना कर ली जाती है, प्रचण्ड और अनीतियुक्त प्रभु यदि कतिपय व्यक्तियों को हानि नहीं पहुँचावे इतने से ही बड़े बड़े कवि या भाट अथवा भयभीत मिथ्याप्रशंसी जन ( चापलूस ) उस प्रभु को परम परोपकारो, विश्ववन्धु, धार्मिकवरेण्य, प्रशान्तकषाय, दीनोद्धारक, महामना, आदि पदवियों से अलंकृत कर देते हैं । इसी प्रकार सत् भी असत् का निषेध रूप होकर सत्ता रूप से कल्पित कर लिया गया है, जगत् में नित्य, स्थिर, स्थूल, साधारण, माना जाय ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है, वस्तुतः क्षणिक, असाधारण, सूक्ष्म ऐसे उत्पाद, व्यय, स्वभावों वाले स्वलक्षण को हो सत् स्वरूपपना है । आचार्य कहते हैं, कि बौद्धों के इस एकान्त का व्यवच्छेद करने के लिये सत् के लक्षण में घ्नौव्य से युक्त इस चारों ओर से तदात्मक होरहे विशेषण का भाषण किया गया है, अतः उक्त सूत्र में कहा गया, उत्पाद, व्यय, नोव्यों से युक्त होरहा सत् निर्दोष हैं । स्यान्मत, यद्युत्पादादीनि परैरुत्यदा दभिर्विना सन्ति तदा द्रव्यमपि तैर्विनैव सदस्त्विति व्यर्थं तद्युक्तवचनं, अथ रैरुम्पाद दिनिर्योगात् तदानवस्था स्यात् प्रत्येकमुत्पादादीनामपरोस्पादादित्रययोगात्तदुत्पादादीनामपि प्रत्येकमपरीत्यादादित्रययोगतः सत्वसिद्धेः । सुदूरमपि गोत्पादादीनां स्वतः सत्वे सतोपि स्वत एव सत्वं भवेदुत्पादादीनां सतानर्थान्तरत्वे लक्ष्यल
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy