SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 373
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इलोक-वार्तिक बौद्धोंके मन्तव्यका अनुवाद है,कि उत्पाद प्रादिक तीनों धर्म जिस प्रकार दूसरे उत्पाद प्रादिकों के बिना सत् स्वरूप हैं, तिसी प्रकार सत् प्रात्मक वस्तुत भी उत्पाद आदि के बिना ही सत् होजागो यदि ऐसा नहीं माना जायेगा यानी वस्तु को सत् रक्षित करने के लिये उत्पाद आदिकों की उसमें निष्ठा की जायगी इसी न्याय अनुसार उत्पाद आदिकों को भी सत् व्यवस्थित करने के लिये अन्य उत्पाद प्रादिकों की उत्तरोत्तर कल्पना की जायेगी तब तो आरहे अनवस्था दोष का भला किस विद्वान् करके निवारण किया जा सकता है ? अर्थात्- कोई भी शक्ति-शाली पुरुष अनवस्था दोष को नहीं टाल सकता है। . प्राचार्य कहते हैं, कि यह बौद्धों का मन्तव्य सभी प्रकारों से असत्य है, क्योंकि सत् स्वरूप वस्तु के साथ उन उत्पाद आदि धर्मों के सर्वथा भेद की प्रसिद्धि है, अर्थात् वस्तु से उत्पाद आदि सर्वथा भिन्न होते तब तो उत्पाद आदि का न्यारा सद्भाव रक्षित करने के लिये पुनः उनमें उत्पाद प्रादि तीनों की योजना करते करते अनवस्था प्राजायेगी किन्तु जब समीचीन कुटुम्ब के समान धर्मी धर्मों का एकीभाव होरहा है. तो पुनः आकांक्षा नहीं बढ़ने पाती है, पीले आम्र के शेष दूसरे धर्म भी पीले हैं, प्राम का मीठा रस उसके शेष सभी धर्मों में प्रोत पोत होकर घुस रहा है, हाथ, पांव मुख, ये अवयव सब पेट को पुष्ट करते हैं, पेट भी माता के समान सब को ठीक बांट पहुंचा देता है, स्वभावों में दम्भ का प्रवेश नहीं है, अत: अनवस्था दोष का अवकाश नहीं है। ___ दूसरे आक्षेप पर हम जैनों को यों कहना है, कि हमारे यहाँ उत्पाद आदिकों का सत् के साथ सर्वथा अभेद भी अभीष्ट नहीं किया गया है, अतः बड़ी प्रसन्नता के साथ सत् और उत्पाद आदि में लक्ष्यलक्षण भाव बन जावेगा । अग्नि उष्णता,यात्मा ज्ञान आदि में लक्ष्यलक्षण भाव बेचारा कथंचित भेद अभेद अनुसार सुघटित है । सूत्र में युक्त शब्द डाल देने से भेद पक्ष का भ्रम नहीं कर लेना चाहिये कि जैसे धनयुक्त, दण्ड-युक्त में युक्त शब्द सर्वथा भिन्न के साथ पुन: योजना करने पर प्रयुक्त किया गया है, वैसा ही यहां भी होगा, किन्तु बात यह है, कि यहां केवल रुधादिगण की 'युजिर योगे' धातु से युक्त शब्द नहीं बना कर दिवादिगणीय युज समाधौ इस धातु से भी निष्ठा प्रत्यय कर युक्त शब्द बना दिया गया है, अतः उत्पाद व्यय,ध्रौव्यों,की एकताओं करके युक्त सत् है, इस सूत्रोक्त का अभिप्राय यों है, कि उत्पाद, व्यय, नौव्यों के अभेद सम्पादक ऐक्यों करके वह सत् समाहित होरहा है, अर्थात्तीनों से तदात्मक होकर एकाग्रभूत सत् है. अतः भेद पक्ष में आने वाले दोष यहां नहीं फटक सकते हैं, कथंचित् भेद,प्रभेद पक्षका दुर्ग अभेद्य है,बुद्ध मनुष्य अलध्य रत्नों पर प्राक्रमण नहीं कर सकते हैं। तादात्म्येन स्थापितं सदिति यजेः समाध्यर्थस्य व्याख्यानान्न तेषां सतोर्थान्तरत्वमुख्यते येन तस्पक्षभावी दोषोनवस्था तद्योगवैयर्थ्यलक्षणः स्यात् । चानान्तरत्वमेव यतो लक्ष्यसपणमावविरोधः कथंचिदूभेदोपगमाधुजेयोगार्थस्यापि व्याख्यानात् ।
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy