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________________ पंचम - अध्याय चतुवु द्रौ रूपं प्रतिभापते न पुनस्तदभिन्नोति ब्रुवाणः कथं स्वस्थः ? कथं रूपादिभिन्नोवयवी रूश्मेत्र न स्यादिति चेत् तस्य ततः कथंचिद्भेदात् । न हि सर्वथा गुणगुणिनोरभेदमात्रमाचक्ष्महे प्रतीनिरोधात पर्यायार्थतस्तयोर्भेदस्यापि प्रतीतेः । सर्वथाऽ भेदे तयोर्भेद इत्र गुणगुणिभावानुपपत्तेः गुणस्वात्मवत्कुटपटवच्च । चक्षुः इन्द्रिय-जन्य ज्ञान में अकेला रूप ही प्रतिभासता है किन्तु फिर उससे भिन्न हो रहा श्रवयवी नहीं दीखता है, इस प्रकार कहने वाला पण्डित भला कैसे स्वस्थ कहा जा सकता है ? मूर्च्छित पुरुष ही ऐसी पूर्वापर विरुद्ध बातों को बकता है। यदि वह पण्डित यों कहे कि रूप से अभिन्न होरहा श्रवयवी तो रूप ही क्यों नहीं होजायगा ? अतः रूप का दर्शन उस प्रवयवी का ही दर्शन समझ लिया जाय । यों कहने पर आचाय कहते हैं कि उस रूपी अवयवीका उस अकेले रूप गुरण से कथंचित् भेद है सर्वथा अभेद नहीं है, हम गुरण और गुणीके केवल सर्वथा अभेद को नहीं वखान रहे हैं । ऐसा व्याख्यान करने में तो प्रतोतियोंसे विरोध आता है । ३४३ सत्य बात यह है कि पर्यायों को जानने वाली पर्यायार्थिक नय अनुसार विचारने से उन गुण और गुरणी का भेद भी प्रतीत हो रहा है । कच्चे घड़े को पका देने पर उसो घड़े की श्यामता का नाश होकर रक्तता का उत्पाद होजाता है, रूप, रस, आदि के क्रमसे हुये अनेक ज्ञान नष्ट होते रहते हैं । किन्तु ज्ञाता, स्मर्ता, प्रत्यभिज्ञाता आत्मा वह का वही बना रहता है । यदि गुरण और गुणीका सर्वथा अभेद मान लिया जायगा तो सह्य विध्य, मल्ल प्रतिमल्ल, स्वर्ग नरक, प्रादिक सर्वथा भिन्न हो रहे पदार्थों के सर्वथा भेद पक्ष में जैसे इनका गुण गुणी भाव नहीं बनता है । उसी के समान सर्वथा अभेद पक्ष में भी रूप और रूपवान्का गुणगुणीभाव नहीं बन सकता है, देखो गुरण और उससे सर्वथा अभिन्न होरही गुण की आत्मा ( स्वरूप ) में गुण गुणी भाव नहीं है तथा सवथा भिन्न हो रहे घट और पट में भी गुणगुणीभाव नहीं माना गया है इन्हीं के समान अन्य भी सर्वथा भिन्न या सर्वथा अभिन्न पदार्थों में स्वभाव स्वभाववान्पना या गुणगुणीपना नहीं घटित हो सकेगा । तत्र द्रव्यार्थिकप्राधान्य द्रव्यस्वरूपादभिन्नत्वाद्र पस्य चाक्षुषत्वे द्रव्यस्य चाक्षुषत्वसिद्धिः स्पृश्यादभिन्नस्य स्पर्शस्याभावात्तत्र स्वार्शनत्वसिद्धिरिति चेत् पर्यायार्थिकप्राधान्याच्च द्रव्याद्भेदेपि रूपस्येव द्रव्यस्यापि चाचुषत्वोपगमान्न तस्याचानुपत्वं नाप्यस्यास्पर्शनत्वं स्पर्शस्येव तद्द्द्रव्यस्य स्पार्शनत्वप्रतीतेः । न च दार्शनं स्पाशनं च द्रव्यमिति द्वींद्रियग्राह्यं द्रव्यमुपगम्यते तस्य घ्राणरसनश्रोत्रमनाग्राह्यत्वेनापि प्रसिद्धेः । . उस गुरण गुणो स्वरूप वस्तु में द्रव्यार्थिक दृष्टि को प्रधानता अनुसार द्रव्य स्वरूप से भिन्न होजाने के कारण रूप यदि चाक्षुष माना जायेगा तो साथ ही तदभिन्न द्रव्य को भी चाक्षुषपने की सिद्धि होजाती है । यदि यहां कोई वैशेषिक पण्डित यों कटाक्ष करे कि छूने योग्य स्पृश्य द्रव्य से अभिन्न हो रहे स्पर्श का अभाव है, द्रव्य से गुरण सर्वथा भिन्न है अतः उस वस्तु में स्पर्श के तो स्पर्शन
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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