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श्लोक- वार्तिक
पटादिरूपव्यतिरेकेण चतुर्बुद्धावप्रतिभासमानोवयवी कथं चाचुषो नाम ? गंध देरपि चाक्षुषत्वप्रसंगादिति चेन्न, पटाद्यवयविन एव चक्षुर्बुद्धौ प्रतिभासनात् । तद्व्यतिरेकेण रूपस्य तत्राप्रतीतेर्गधादिवत् ।
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यहां कोई बौद्ध या वैशेषिक का एक देशी पण्डित आक्षेप करता है कि चक्षु इन्द्रिय-जन्य ज्ञान में पट, पुस्तक, आदि के रूप के सिवाय अन्य कोई भी अवयवो नहीं प्रतिभास रहा है, ऐसी दशा में वह असत् अवयवी भला किस प्रकार चक्षु इन्द्रिय द्वारा उपजे हुये ज्ञान का विषय होसकता है ? बताओ । यों तो गन्ध, रस, आदि का भी चक्षु इन्द्रिय से ग्राह्य होजाने का प्रसंग प्रजावेगा यानी रूप या रूप जातीय के अतिरिक्त अन्य पदार्थों का भी यदि नेत्रों से प्रतिभास होने लगे तो गन्ध, स्पर्श, आदिक का भी नेत्र से ही प्रतिभास होजावेगा, नेत्र के अतिरिक्त शेष चार, पांच, अतीन्द्रिय इन्द्रियों की कल्पना करना व्यर्थ पड़ेगा । प्राचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि घट, पट, आदि श्रवयवियों हा ही चक्षु इन्द्रिय-जन्य चाक्षुषप्रत्यक्ष में प्रतिभास होरहा है, उन पट आदिक से सर्वथा व्यतिरिक्तपने करके रूप की उस स्थल में प्रतीति नहीं हो रही है जैसे कि फूल इत्र कस्तूरो, बादि सुरभि स्कन्धों के अतिरिक्त गन्ध की या मोदक, पेड़ा. इमरती, आदि रसीले पदार्थो से भिन्न कोई रस आदि की प्रतीति नहीं होती है । तभी तो गन्ध या रस के प्राप्त करने की अभिलाषा प्रवर्तने पर गन्धवान्, रसवान् पदार्थ हो लाये जाते हैं । भावार्थ - भोजन करने के लिये केवल मुख ही नहीं चौका में भेज दिया जाता है, किन्तु तदभिन्न पूरा शरीर ले जाना पड़ता है। एक अंग या उपांग की ही अभिलाषा जागृत होने पर पूरे अगी को प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करना आवश्यक है । अंगी से अग अलग नहीं है । अनेक लोभी या तुच्छ मितव्यय की कोरी डींग मारने वाले पुरुष अपने शिक्षक गुरु के अकेले ज्ञान को ही अपने निकट बुलाना चाहते हैं। शिक्षक की आत्मा के अन्य गुण या गुरु के भोजन, वसन, वाल गोपाल प्रादिक को वे लोभी लक्ष्य में नहीं रखना चाहते हैं, हितोपदेशक को भोजन कराने में भी उनका कंजूस हृदय संकुचित होजाता है, हमें तो गुरु के ज्ञान से ही प्रयोजन है, अन्य गुणों या अगोंका नादर, सत्कार, पुरस्कार, क्यों किया जाय ? ऐसा वे अविनीत, अशिष्ट, कृतघ्न, लोभी पुरुष विचार कर लेते हैं " धिक् एतादृशं "। लेखनी का पांचसौमां प्रग्रवर्ती भाग केवल लिखने में उपयुक्त है। किन्तु पूरी एक वितस्त की लेखनी थामनी पड़ती है। प्रति दिन के सैकड़ों कार्यों में शरीर के छोटे छोटे सैकड़ों श्रवयव ही न्यारे न्यारे कार्य कर रहे हैं, लेखक, सुनार, सूजी, रसोइया, पल्लेदार श्रध्यापक, चिठ्ठीरसा, मल्ल, सैनिक, आदि पुरुषोंके न्यारे न्यारे प्रांग, उपांग विशेषतया कार्य करते रहते
। कितने ही शरीर के श्रवयव तो ऐसे हैं जो जन्म भर में एक वार भी काम में नहीं आते हैं, एतावता अखण्ड अगीका तिरस्कार नहीं कर दिया जाता है । प्रकरण में यह कहना है कि केवल अवयवी से सर्वथा अतिरिक्त मान लिये गये रूप रस, गंध, स्पर्श, आदि की कदाचित् भी प्रतीति नहीं होती है।