SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 361
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४४ लोक-वार्तिक इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य होजाने की सिद्धि होजाती है। यों कहने पर तो ग्रन्थकार कहते हैं कि पर्यायार्थिक नय की प्रधानता से द्रव्य से भेद होने पर भी रूप के समान द्रव्य का भी चाक्षुषपना अभी स्वीकार किया गया है | अतः द्रव्यार्थिक विषय के समान पर्यायार्थिक विषय से भी द्रव्य को चाक्षुषपना है, उस रूपवाले द्रव्य का अचाक्षुषपना नहीं है और इसी प्रकार द्रव्य को स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा गोचर होजाने निषेध भी नहीं है द्रव्यार्थिक या पर्यायार्थिक नय अनुसार स्पश को जैसे स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा ग्राह्यपना है उसी प्रकार उस स्पर्शवाले द्रव्यका भी स्पार्शनपना प्रतीत होरहा है । बात यह है कि वैशेषिक पण्डित द्रव्यों के वहिरिन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष में रूप को कारण मानते I वस्त्र, हैं । " रूपमत्रापि कारणं द्रव्याध्यक्ष " प्राचीन वैशेषिक वायु द्रव्यका प्रत्यक्ष नहीं मानते हैं, विजातीय स्पर्श करके विलक्षरण शब्द करके, तृण यादिकों का उड़ कर अधर डटे रहने से और शाखा, पते, श्रादिके कम्प करके वायु का अनुमान कर लिया जाता है। इसी प्रकार प्राचीन वैशेषिक पण्डित रसना इन्द्रिय की और घ्राण इन्द्रिय की द्रव्य के ग्रहरण करने में सामर्थ्य नहीं मानते हैं नाना जाति के रस वाले अवयवों करके वनाये गये अवयवी को वे नीरस स्वीकार कर लेते हैं, उस अवयवी में अवयवों के रस का ही रासन प्रत्यक्ष होता है । हां नवीन वैशेषिक वायु का प्रत्यक्ष मान लेते हैं, अनेक रस वाले अवयवों से उपजे हुये प्रवयवी में चित्र रस मानने के लिये भी वे उद्युक्त हैं, इत्यादिक वैशेषिकों को समस्या बड़ी विषम है । 66 उद्भूत स्पर्शवद्रव्यं गोचरः सोऽपि च त्वचः, रूगन्यच्चक्षुषोयोग्यं " यों कह नवीन वैशेषिकों ने रूप और स्पर्श गुण तथा रूपवान् और स्पर्शवान् द्रव्यों का वहिरंग इन्द्रियों से प्रत्यक्ष हाजाना अभीष्ट कर लिया है किन्तु इतना लक्ष्य रहे कि द्रव्य को केवल चक्षुः इन्द्रिय और स्पर्शन इन्द्रिय से ही ग्रहण करने योग्य नहीं स्वीकार कर लिया जाय यानी चक्षु इन्द्रिय-जन्य चाक्षुष प्रत्यक्ष का विषय हारहा दार्शन और स्पर्शन इन्द्रिय-जन्य प्रत्यक्ष का विषय हारहा स्पार्शन यो केवल दो ही इन्द्रियों करके ग्रहण करने योग्य नहीं मान बैठना चाहिये क्योंकि उस पुद्गल द्रव्य को नासिका, जिह्वा, कान और मन इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करने योग्यपन करके भी प्रसिद्धि हो रही है अतः वैशेषिकों का एकान्त प्रशंसनीय नहीं है । रूपादिरहितस्य द्रव्यस्येव द्रव्यरहितानां रूपादीनां प्रत्यचाद्यविषयत्वादसर्व पर्या याणां मतिश्रुतयो विषयत्वव्यवस्थापनात् । जैन सिद्धान्त अनुसार गुण और गुणी में कथंचित् प्रभेद है, गुणों से रहित होकर कंवल गुणी का सद्भाव सम्भव है, वैशेषिको ने प्राद्य क्षण में अवयवो का गुणरहित उपजना स्वाकार किया है यह मन्तव्य सर्वथा पोच है तथा गुणी द्रव्यके विना अकेले गुणों का निवास करना भी उस ही प्रकार असम्भव है । तभी तो रूप, रस, प्रादिक से रहित हो रहे द्रव्य का जैसे प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों द्वारा गोचर होजाना नहीं प्रभीष्ट किया है। उसी के समान द्रव्य से रहित हारहे केवल रूप श्रादि - गुणों का भी feat at प्रत्यक्षादिप्रमाण से ग्रहण नहीं हो पाता माना है भाय के विना रूप
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy