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श्लोक-वातिक
संयोग बेचारा अवयव संयोग पूर्वक है । यानी अवयवों के संयोग से भले ही अवयवी का संयोग होजायगा किन्तु अवयवी संयोग से अवयवों का संयोग कथमपि नहीं उपजता है। तो फिर जैन या दूसरे पण्डित यों कैसे कह सकते हैं कि संघात से परमाणूत्रों का संयोग ही उपजेगा, स्कन्ध नहीं ? हां अवयवों के परस्पर में होरहे संयोग तो कोई अन्यतर कर्म-जन्य हैं और कोई उभय कर्म-जन्य हैं। संयुक्त होने वाले दोनों सूत्रों में से किसी एक सूत में क्रिया होकर दूसरे स्थिर सूत के पास उसका चला जाना रूप क्रिया से जो संयोग होता है वह अन्यतर कर्म-जन्य है, एक कपाल में क्रिया होकर धरे हुये दूसरे कपाल में उसका भिड़ जाना भी अन्यतर कर्मजन्य संयोग है । विभक्त होरहे मल्लों या मेंढ़ों दोनों में क्रिया होकर भिड़ जाना उभय कर्म-जन्य संयोग माना गया है। कोरिया कभी दोनों तन्तुओं को सरका कर उनका संयोग कर देता है, कुलाल भी दोनों कपालों को भिड़ा कर संयुक्त कर देता है, यह अवयवों का उभय कर्म-जन्य संयोग है।
परमाणुप्रों के संयोग भी दोनों ढंगों अनुसार क्रियानों से होजाते हैं, यों अवयवों के अन्यतर कर्मजन्य अथवा उभय कर्म-जन्य होरहे संयोग की निर्वाध प्रतीति होरही है. इस प्रताति के स्वरूप का किसी भी कारण से स्खलन नहीं होता है तिस कारण सिद्ध होजाता है कि परमाणुगों या अवयवों के संघात से स्कन्ध इस दूसरे नाम को धार रहे अवयवी की ही उत्पत्ति नहीं होपाती है। ऐसी दशा में आप जैनों ने हमारे ऊपर जो प्राक्षेप किया था, वह ठीक नहीं है । वैशेषिकों के यों कहने पर अब आचार्य कहते हैं कि तब तो इसी ढंग से तुम्हारे कटाक्ष का भी निवारण होजाता है। देखिये आप वैशेषिकों ने यों कटाक्ष किया था कि स्कन्ध का विदारण होजाने से परमाणुओं का मात्र विभाग होजाता है अणुयें नहीं बनती हैं इस पर हम जैनों का यह कहना है कि स्कन्धों का भेद तो एक प्रकार का विभाग ही समझाया जाता है उस विभाग स्वरूप भेद से द्वघणुक, त्र्यणुक,आदि स्कंधों का विभाग भला कैसे उपज सकता है ? किचित् विचारो तो सही। यह द्वयणूक का विभाग कोई विभागज विभाग थोड़ा ही है जो कि विभाग से उपज जाय । वह द्वयणूक प्रादि अवयवों का स्कन्ध विभाग तो दूसरे विभागों से जन्य नहीं है । सभी स्थलों पर अवयवों के विभाग-पूर्वक ह रहे अवयवी के विभाग की ही विभागज विभाग स्वरूप करके प्रसिद्धि होरही है, जैसे कि आकाश के साथ वृक्ष की पीढ़ के दो भागों के एक दल का विभाग से जन्य विभागज विभाग है।
अर्थात-वृक्ष के नीचले भाग तना में कुठारसंपात-जन्य क्रिया करके विभाग उपजा यह क्रिया-जन्य पहिला विभाग है जो कि एक दल का दूसरे दल के साथ है । पुनः इस विभाग करके उस पीढ़ के आधे दल का आकाश देश के साथ विभाग उपजता है, वह कारण-मात्र विभाग-जन्य दूसरा हमा विभागज विभाग है । अथवा किसी ने बृक्ष के साथ हाथ को भिड़ा रखा है, अब पुरुषार्थ द्वारा हाथ में किया उपजा करके हाथ और वृक्ष का विभाग किया पश्चात् उस हस्त बृक्ष विभाग करके शरीर के साथ वृक्ष का विभाग भी पा जाता है। यह कारणाकारण विभाग-जन्य विभागज