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________________ बेचम - अध्यार्थ ३२७ उस हीं आकाश का दृष्टान्त यहां भी उपयोगी होजाता है प्रर्थात् — सूत्रों के संघात से नित्य श्राकाश के समान स्कन्ध नहीं उपजते हैं । दूसरे बौद्ध पण्डित करके भी यों कहा जा सकता है कि असंसृष्ट परमायें भिड़ कर पुनः प्रत्यासन्न अवस्था में नवीन ढंग से उपज जाती हैं, कोई नवोन अवयवी स्कन्ध नहीं बन जाता है । सांख्य यों कह सकते हैं कि अनादि काल से आकाश के समान सद्भूत होरहे नित्य स्कन्ध उपजते ही नहीं हैं । " सर्व सर्वत्र विद्यते " केवल तिरोभूत स्कन्ध ही मिश्रण अवस्था में व्यक्त होजाते हैं । जैन तो वैशेषिकों के ऊपर वैसा का वैसा ही आक्षेप उठा सकते हैं, कि परमाणूत्रों के संघात से कोई अवयवी द्रव्य नहीं उपजा है केवल संयोग ही उपज गया है । प्रवयविने दत्तो जलाञ्जलिर्वैशेषिकेरण महापण्डितेन, अपसिद्धान्तोयं वैशेषिकाणाम्” । ननु च संघातः संयागविशेष एव ततः कथ परमाखूनां परस्परं सयोगः समुपजायेत तस्यासंयोगजत्वात् । सर्वत्रावयवसंयोगपूर्वस्यावयविसंयोगस्य प्रसिद्धवरणादौ द्वितंतुकसंयोगवत् परस्परमवयवानां तु संयोगस्यान्यतर कर्मजस्यो भयकर्म जस्य वा प्रतीतेरस्खलद्रूपत्वात् । ततः संघातादवयविन एव स्कंधापरनाम्न उत्पत्तिर्न सयोगस्यात चेत्, तर्हि विभागों भेद एव प्रतिपाद्यते ततः कथं द्वयणुकादेः स्कन्धस्य विभागः समुपजायेत तस्याविभागजत्वात्सवत्रावयवविभागपूर्वस्यावयवविभागस्य विभागजविभागस्य प्रसिद्ध रा का रास्का दल विभागवत् । परस्परमवयवानां तु विभागस्यान्यतरकर्मजस्योभयकर्मजस्य वा प्रतीतेरवाध्यत्वात् कथं द्वयकादिकं भेदाद्विभागस्यैवोत्पत्तिरभ्युपगम्यते भवद्भिः । वैशेषिक अपने ऊपर प्राये हुये जैनोक्त प्रक्षेपका निवारण करते हुये स्व-पक्ष का अवधारण करते हैं कि हमने जो यों कहा था कि स्कन्ध का छेदन, भेदन होजाने से परमाणूत्रों का विभाग गुण उपज जाता है, आकाश के समान नित्य परमाणूयें नहीं उपजती हैं। इस पर जैनों ने हम वैशेषिकों के ऊपर भी यही प्राक्ष ेप ज्यों का त्यों घर दिया कि परमाणूत्रों के सम्मिश्रण से भी परमाणुत्रों का संयोग मात्र ही उपजेगा स्कन्ध या अवयवी नहीं उपजेगा, इस पर हम वैशेषिकों को यह कहना है, कि संघात तो एक प्रकार का संयोग विशेष ही है । उस संघात से परमाणुओं के परस्पर में संयोग भला कैसे उपज सकेगा ? बताओ तो सही । क्योंकि परमाणुत्रों का वह संयोग तो किसी अन्य संयोग विशेष से जन्य नहीं है, क्रिया से परमाणुओं का संयोग होजाना माना गया है। पहले ईश्वर इच्छा, अग्निसंयोग, वेग, श्रदृष्ट, आदि कारणों से परमाणुभ्रा में क्रिया उपजती है, क्रिया से परमाणुओं का विभाग होजाता है तदनन्तर पूर्व संयो ( का नाश होता है पुनः उसी क्रिया से उत्तर देश-वर्ती पदार्थ के साथ संयोग होजाता है, अतः परमाणूप्रां का संयोग किसी अन्य संघात यानी संयोगसे जन्य नहीं है। सभी स्थलों पर अवयवों के संयोग को पूर्ववर्ती मानकर श्रवयवी का सँयोग होना ही प्रसिद्ध होरहा है, जैसे कि तृण विशेष से बने हुये वीरण ( बुरुस ) तुरी आदि में दो दो तन्तु वाले दूता का
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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