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पंचम-अध्याय
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उत्पद्यतेऽणवः पुद्गलपर्यायत्वात् स्कन्धवत । न हि पार्थिवादिपरमाणं वापि पृथिव्यादिद्रव्याण्येव,पृथिव्यादिपरमाणुस्कंधद्रव्यव्यक्तिषु पृथिवीत्वादिप्रत्यहेतोरूर्वतासामान्याख्यस्य पृथिव्यादिद्रव्यस्य व्यवस्थापनात् । ततो न तेषां पर्यायव मसिद्ध।
परमाणुये ( पक्ष ) उपजती हैं, ( साध्य ) पुद्गल की पर्याय होने से ( हेतु ) स्कन्ध के समान ( अन्वय दृष्टान्त )। यहां वैशेषिकों का यह मन्तव्य होसकता है, कि पृथिवी परमाणुयें तो पृथिवी द्रव्य ही हैं, जल परमाणुऐ जल द्रव्य ही हैं, तैजसपरमाणुयें तेजोद्रव्य ही हैं, वायवीय परमाणुयें वायु द्रव्य ही हैं, ये चारों जाति की न्यारी न्यारी परमाणुये कथमपि पर्याय नहीं हैं, हाँ इन चारों द्रव्यों के बने हुये पृथक् पृथक् शरीर, इन्द्रिय और विषय इन तीन भेदों अनुसार अनित्य स्कन्ध अनेक हैं, जो कि स्कन्ध पर्याय स्वरूप ही हैं. द्रव्य नहीं हैं । इस मन्तव्य का प्रत्याख्यान करते हुये ग्रन्थकार कहते हैं, कि प्रथम तो पृथिवी, जल, आदि चार जाति की न्यारी न्यारो परमाणुयें ही नहीं हैं, एक रूप, एक रस, एक गन्ध और दो स्पर्श गुणों को धारने वालो एक एक परमाणू होकर यों एक ही प्रकार की अनन्तानन्न पुद्गल परमाणूयें हैं, भिन्न भिन्न वृक्षों में प्राप्त हुये मेष जल के समान वे परमाणुयें न्यारे न्यारे स्कन्धों में परिणत हुई अनेक अर्थक्रियानों को कर देती हैं।
दूसरी बात यह है, कि पार्थिव, जलीय, प्रादि परमाणूयें भी केवल पृथिवी द्रव्य, जल द्रव्य आदि द्रव्य स्वरूप ही नहीं हैं, परमाणूयें भेद होजाने से उपज रही पर्यायें भी हैं, यों द्रव्यदृष्टि से या सदृश परिणाम स्वरूप द्रव्यत्व जाति पर लक्ष्य देकर विचारा जाय तो स्कन्ध भी द्रव्य होजाते हैं। परमाणुषों ने ही द्रव्यपने का ठेका नहीं मोल ले लिया है । वैशेषिकों ने भी स्कन्ध को द्रव्य मान लिया है, पृथिवी परमाणूयें और घट, पट, आदि पार्थिव स्कन्धों इन द्रव्य-व्यक्तियों में ये पूर्वापर परिणाम पृथिवी है, ये पृथिवी हैं, इत्यादि अन्वयरूप से ज्ञान कराने के कारण होरहे उर्ध्वतासामान्य नामक पृथिवी द्रव्य को पूर्व प्रकरणों में व्यवस्था कराई जा चुकी है।
अर्थात्-परापरविवर्तव्यापि द्रव्यमूर्खता मदिव स्थासादिषु" कालत्रय सम्बन्धी अनेक विवों में पृथिवीत्व या द्रव्यत्व नामके ऊर्ध्वता सामान्य ठहर रहे हैं, इसी प्रकार पहिले पिछले कालोंमें वतरहे जल आदि के व्यक्तिरूप से परमाणु द्रव्यों और स्कन्ध द्रव्यों में जलत्व, तेजस्त्व आदि अन्वय ज्ञानों के हेतु होरहे ऊर्ध्वता सामान्य इस संज्ञा के धारी जल आदि द्रव्यों की व्यवस्था कर दी गई है, तिस कारण स्कन्धों में भी कथंचित् द्रव्यपना सिद्ध है, तिस ही कारण उन परमाणूमों का पर्यायपना प्रसिद्ध नहीं है, अनेक कालों में उपज रहे परमाणु विवर्तों में तभी तो एक द्रव्य की अनेक भूत, वर्तमान्, भवि. ज्य परिणतिषों में ठहरने वाला ऊर्ध्वतासामान्य वर्त रहा है. अतः परमाणूत्रों की उत्पत्ति होना सध जाता हैं, जैनों का पुद्गल पर्यायत्व हेतु पक्ष में ठहर गया, यह हेत्वाभास नहीं है।
परमाणूनां कारणद्रव्यत्वनियमादसिद्धमेवेति चेन्न, तेषां कार्यत्वस्यासि सिद्धेः।