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श्लाक-वातिक इति मूत्रे बहुत्वस्य निर्देशाद्वाक्यभिद्गतिः ।
निश्चीयतेन्यथा दृष्टविरोधस्यानुषंगतः ॥२॥... परमाणुयें और स्कन्ध (पक्ष) उपजते रहते हैं,(साध्य) विशेषताओं करके रहित होरहा पर्यायपना होनेसे (हेतु) इस अनुमान द्वारा अणुओंके समान स्कन्धोंकी या स्कन्धोके समान पुद्गलपरमाणुओं की अथवा परमाणु और स्कन्ध दोनों की उत्पत्ति होना सिद्ध कर दिया है, कई अणुयें या स्कन्ध तो पिण्ड के छिन्न भिन्न, होजाने से उपज जाते हैं, और कोई कोई स्कन्ध बेचारे मिश्रण होजाने रूप संघात से उत्पन्न होजाते हैं, तथा कतिपय स्कन्ध तो एक साथ हुये कुछ पिण्डों के भेद और कुछ पिण्डों के संघात से प्रात्मलाभ करते हैं । इस प्रकार सूत्र में “भेदसंघातेभ्यः" यों बहुवचन का निर्देश किया गया है, अतः १ भेद से उत्पन्न होते हैं, २ संघात से उपजते हैं, ३ भेद और संघात दोनों से उपजते हैं । यों भिन्न भिन्न तीन वाक्यों की ज्ञप्ति होजाना निर्णीत कर लिया जाता है । अन्यथा यानी इन तीन के सिवाय अन्य किन्हीं एक, दो, या चार, पांच, प्रकारों से अणुओं या स्कन्धों की उत्पत्ति मानी जायगी तो प्रत्यक्ष प्रमाणों से ही विरोध आजाने का प्रसंग आवेगा जब कि प्रत्यक्षप्रमाण द्वारा या युक्तियों से भी तीन ही प्रकारों करके पुद्गलों की उत्पत्ति होना जगत्-प्रसिद्ध होरहा है, ऐसी दशा में अन्य किसी प्रकार को अवकाश नहीं मिलता है।
स्कंधस्यारंभका यद्वदणवस्तद्वदेव हि ।
स्कंधोणूनां भिदारंभनियमस्यानभीक्षणात् ॥३॥
नैयायिक या वैशेषिकों ने अणुओं को स्कन्ध का उत्पादक जैसे मान लिया है, उस ही प्रकार स्कन्ध भी छिन्न भिन्न होजाने से अणुप्रों की उत्पत्ति कराने वाला है, परमाणुषों या स्कन्ध के पारम्भ करने वाले न्यारे न्यारे विजातोय कारण होंय या इन दोनों में से किसी एक स्कन्ध की तो उत्पत्ति मान ली जाय और परमाणुओं की उत्पत्ति नहीं मानी जाय ऐसे पक्षपातपूर्ण नियम कर देने का दर्शन नहीं होरहा है, अतः स्कन्धों के समान परमाणुयें भी स्कन्धों के भेद से उपज जाती हैं, यों स्वीकार कर लो । यद्यपि जगत् में अनन्तानन्त परामाणुयें ऐसी हैं, जो कि अनादि काल से परमाणु अवस्था में ही निमग्न हैं, वे स्कन्ध से उपजी हुई परमाणुयें नहीं हैं, तथापि स्कन्धों से परमाणुओं की उत्पत्ति होजाने के सिद्धान्त में कोई क्षति नहीं पड़ती है, अनन्तानन्त अकृत्रिम स्कन्ध भी तो परमाणुगों से नहीं उपजे हये जगत् में अनादि काल से स्कन्ध पर्याय में ही लवलीन होरहे हैं, एतावता परमाणुओं और स्कन्धों के होरहे मिथःकार्य कारण भाव को अक्षुण्ण रक्षा होजाती है, कार्यकारणभाव की मनीषा इतनी ही है, कि नवीन ढग से जो परमाणुयें उपजेंगी वे विदारण करने से ही निपजेंगी तथा जो स्कन्ध नवीन रीति से प्रात्मनाभ कर रहे हैं वे भेद, संघात ओर भेदसंघात इन तीन प्रकारों से ही उपजते हैं, अन्य कोई उपाय नहीं। “चतुर्थो नैव कारणम्"।