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पंचम - अध्याय
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बैना लिया जाता है, तथा जल में औषधियों का क्वाथ करते समय अग्नि द्वारा जल का कुछ भाग जल कर विदीर्ण होजाता है, और कुछ भाग श्रौषधियों का जल में प्राकर उसी समय मिलजाता है, एक काढ़ा नामक पेय औषधिस्कन्ध बन जाता है. जो कि अग्निसंयोग को मिमित्त पाकर हुई श्रौषधि और जल की तीसरी ही अवस्था है ।
उत्पूर्वः पदित्यर्थस्तेनोत्पद्यंते जायंत इत्युक्तं भवति तदपेचो हेतुनिर्देशो भेदसंघातेभ्य इति निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां प्रदर्शनाद्भेदसंघातेभ्य उत्पद्यन्त इति ।
सूत्र
यह
पदतौ धातु से पूर्व में उत् उपसर्ग लगा देने पर उसका अर्थ जन्म होजाता है, तिस कारण के उत्पद्यन्ते इस पद द्वारा ' उत्पन्न होजाते हैं" यह अर्थ कहा जा चुका हो जाता है, उपजना क्रिया को किसी हेतु की अपेक्षा है, अतः उस उत्पद्यन्ते की अपेक्षा रखता हुआ "भेदसंघातेभ्यः " पंचमी विभक्ति वाले हेतु का निर्देश कर दिया "जनि कर्तुः प्रकृतिः" वैयाकरणों का निमित्त या कारण अथवा हेतुनों में सम्पूर्ण विभक्तियों के होजाने का आदेश है " हेती हेत्वर्थे सर्वाः प्रायः " धर्मेण हेतुना, धर्माय हेतवे. धर्माद्धेतोः, धर्मस्य हेतोः, धर्मे हेतौ वर्तते, ऐसे प्रयोग मिलते हैं । "निमित्तपर्यायप्रयोगे सर्वासां प्रायदर्शनं, अतः हेतु अर्थों में सभी विभक्तियों का प्रदर्शन होजाने से यहाँ प्रकरण में सूत्रकार ने पंचमी विभक्ति को कहते हुये “भेदसंघातेभ्य उत्पद्यन्ते" यों सूत्र कहा है, ज्ञापक हेतु या कारक हेतु दोनों में पंचमी विभक्ति अधिक शोभती है '
ननु च नोत्पद्यते वो कार्यत्वाद्गगनादिवदिति कश्चित्, स्कंधारच नोत्पद्यन्ते सतामेव तेषामाविर्भावादित्यपरः । तं प्रत्यभिधीयते ।
यहाँ किसी एकान्त-वादी पण्डित के स्वपक्ष का अवधारण है, कि परमाणुयें ( पक्ष ) नहीं उपजती हैं, ( साध्य ) किभी भी कारण के द्वारा बनानेयोग्य कार्य नहीं होने से ( हेतु ) श्राकाश, श्रात्मा, आदिके समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । इस प्रकार कोई नैयायिक या वैशेषिक पण्डित कह रहा है, तथा कोई दूसरा पण्डित यों भी कह रहा है, कि स्कन्ध ( पक्ष ) नहीं उपज रहे हैं, ( साध्य ) क्योंकि अनादि काल से सभूत होरहे स्कन्धों का ही अभिव्यंजक कारणों द्वारा श्राविर्भाव हो जाता है, ( हेतू ) रात्रि में देखे जा रहे तारागण के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । इस प्रकार दूसरे किसी सांख्य पण्डित का कहना है । अर्थात् परमाणुओं को वैशेषिक नित्य द्रव्य मानते हैं, अतः परमाणनों की उत्पत्ति नहीं हो सकती है, एवं परमाणुओं को नहीं मान कर प्राकृतिक नित्य स्कंधों का ही आविर्भाव तिरोभाव मानने वाले सांख्यों के यहां स्कन्धोंकी कथमपि उत्पत्ति नहीं मानी गयी है, इन दोनों पण्डितों के प्रति अब ग्रन्थकार करके वार्त्तिक द्वारा समाधान कहा जाता है उसको श्राप सज्जन भी सुनेंउत्पद्यतेणवः स्कन्धाः पर्यायत्वाविशेषतः ।
भेदात्संघाततो भेदसंघाभ्यां चापि केचन (संघाताभ्यां च केचन ) ॥ १ ॥
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