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लोक- वार्तिक
सान्ति बौद्धों ने सभी अन्तरंग, वहिरंग, स्वलक्षरणों को वस्तुतः परमाणू स्वरूप मान रक्खा है, सूक्ष्म, आसाधारण, क्षणिक, मान लिये गये अतीन्द्रिय परमाणूत्रों का ग्रहण करने वाले ( के लिये ) बेचारे अनुमान प्रमाण का भी सद्भाव नहीं है, क्योंकि अनुमान में पड़े हुये हेतु का प्रत्यक्ष होना चाहिये, भ्रान्त होगये प्रत्यक्षों से किसी भी ज्ञापक हेतु की व्यवस्था नहीं होसकती है । ऐसी दशा में बौद्धों के यहां केवल परमाणुओं का ही एकान्त पक्ष पकड़े रहना भला किस प्रमाण से वास्तविक सिद्ध हो सकेगा ? अर्थात् परमाणुओं का ही एकान्त करना ठीक नहीं है ।
स्कन्धैकांतस्तस्तो स्त्वित्यापि न सम्यक् परमाणुनामपि प्रमाण सिद्धत्वात् । तथा हिकादिकं भेद्यमृर्तत्वे सति सावयवत्वात् कलशयत् । योऽसौ तद्भेदाञ्जानोनंशोवयवः स परमाणुरिति प्रमाण सिद्धाः परमाणवः स्कंधवत् ।
कोई विद्वान् कहते हैं कि परमाणुओंों के एकान्त-वाद में अनेक दोष प्राते हैं, अतः सम्पूर्णं पदार्थों को स्कन्ध स्वरूप ही माना जाय, परमार्थ रूप से स्कंधों का एकान्त ही होयो । आचार्य कहते हैं, कि यह एकान्त भी समीचीन नहीं क्योंकि जगत् में परमाणुओं की भी प्रमाणों से सिद्धि हो चुकी है । उसको और भी यों स्पष्ट कर समझ लीजियेगा कि आठ श्रणुत्रों का बना हुआ अष्टाक या सात प्रणुओं का सप्ताणुक प्रादि स्कन्ध ( पक्ष ) भेद यानी विदारण करने योग्य है ( साध्य ) मूर्त होते सन्ते सावयव होने से ( हेतु ) घट के समान ( अन्वयदृष्टान्त ) । उन अष्टाणुक आदि स्कन्धों का भेद होते होते अन्त में जो कोई वह प्रसिद्ध, निरंश, अवयव उपजेगा वही परमाणु है इस प्रकार स्कन्धों के समान परमाणुयें भी प्रमाण से सिद्ध होजाती हैं । अर्थात् - प्रष्टाणुक को चाहे चारद्वयकों से या दो त्र्यणुकों और एक धणुक से अथवा आठो ही अणुनों से एवं एक सप्ताणुक और एक अणु से तथा एक षडणुक और एक द्वणूक आदि किसी भी ढंगों से बना लिया जाय पुरुषार्थ से कोई जीव इन द्वणूक, क, आदि को नहीं बनाते हैं। जैसे कि काठ कपास, माटी, चांदी, प्रन्न को कोई वढ़ई, कोरिया, कुम्हार, सुनार, वनिया, नहीं बना सकते हैं। मेघ, विद्युत्, श्रन्धी, उल्का, श्रादि के समान न जाने किन किन निमित्तों अनुसार प्रतीन्द्रिय हो रहे द्वघणूक आदि स्कन्ध उपज जाते हैं।
ये
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चिपट जाते हैं ।
ओर से सात
छः पैल वाली बीचली परमाणू के साथ छह ऊ दिशाकों से छः परमाणू बन्ध होजाने पर उन सातों का एक सप्तारणूक अवयवी बन जाता है । कभी एक ही परमाणू चुपट जाते हैं, तो भी भ्रष्टारमूक बन सकता है, उस सप्तारणूक स्कन्ध में ही पुनः एक परमाणु बन्ध जाय तो भी प्रष्टाएक स्कन्ध वन जाता है। वैशेषिकों की वह प्रक्रिया जैन सिद्धान्त में इष्ट नहीं की गई है । कि थान में यदि एक तन्तु भी आकर मिलेगा तो सब का सब पचास गज का थान नष्ट हो जायगा और पुनः मिलाये गये उस छोटे से डोरे को साथी बना कर अवयवों द्वारा पुनः नवीन थान बनाया जायेगा एवं पचास गज के थान में से एक अंगुल भी सूत निकालने पर भी दूसरा थान