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पंचम-अध्याय
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नवीन बनेगा परमाणू का भी विश्लेश होजाने पर द्वघणूक का नाश होजाने पर त्र्यणूक का नाश होते होते महापट का नाश होजावेगा पुनः परमाणूत्रों में क्रिया द्वारा द्वधणूक आदि की सृष्टि होते होते नवीन महापट को उत्पत्ति हागो, वही पट है, यह प्रत्यभिज्ञान तो सादृश्य मूलक माना जायेगा।
जैसे कि वही दीप कलिका है, यहां सजातीय अन्य कलिकानों में भ्रान्तिवश एकत्व प्रत्यभिज्ञान होगया है। सत्य बात यों है कि वैशेषिकों की यह प्रक्रिया कोरा ढोंग है इस में कोई प्रमाण नहीं है । अतः इसका खण्डन प्रसिद्ध ही है। हां परमाणूत्रों की सूक्ष्मता चमत्कार है स्थूल वुद्धि वाले जीवों के ग्रहण, आकर्षण, खादन, आदि प्रवृत्ति, निवृत्ति, के उपयोगी व्यवहारों में प्रारहा सब से छोटा पिण्ड भी अनन्तानन्त परमाणूत्रों का पुज है। देखिये यहां अब लोक व्यवहार में वाल का अग्र
छोटा टुकड़ा समझा जाता है जो कि अनन्तानन्त परमाणुओं के पिण्ड होरहे उत्संज्ञासंज्ञा नामक पुद्गल स्कन्ध से ८४८४८४८४८xxxc= १६७७७२१६ एक करोड़ सरसठ लाख सतत्तर हजार दो सौ सोलह गुणा बड़ा है । अब बताओ कितने ही सूक्ष्म यत्र से वालाग्र को देखाजाय जो कि यंत्र केश के अग्र भाग को पर्वत के समान भी बड़ा दिखा दे फिर भी सप्ताणूक, अष्टाणूक, कोटयणुक, स्कन्धों का वहिरंग इन्द्रियों से प्रत्यक्ष नहीं होसकता है, जब कि दृश्यमान बड़े बड़े पर्वत या समुद्र तो वालाग्र से संख्याते गुणे ही हैं हां स्वयंप्रभ पर्वत या स्वयम्भू रमण समुद्र भले ही वालाग्र से असख्यातगुण हैं । किन्तु परमाणु, अष्टाणूक, कोटयणुक से वालाग्र तो अनन्तानन्त गुणा है ऐसी दशा में कार्यान्यथानुपपत्ति से ही छोटे छोटे अवयवों को अनुमान द्वारा साध दिया जाता है। प्रागम प्रमाण तो सभी के गुरु हैं ।
___ प्रकरण प्राप्त इस अनुमान में केवल मूर्तत्व ही हेतु कहा जाता तो परमाणू करके व्यभिचार होजाता क्योंकि स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, वाली परमाणू मूर्त है। किन्तु पुनः भिन्न होकर टुकड़ा करने योग्य नहीं है । सावयव कह देने से परमाणू करके आये व्यभिचार का निवारण होजाता है। हाँ यदि सावयवत्व ही हेतु कह दिया जाता तो प्राकाश, आत्मा, आदि, अखण्डनीय पदार्थों से व्यभिचार दोष पाजाता प्रदेशों वाले आकाश आदिक सावयव होते हुये भी भेदने योग्य नहीं हैं, अतः मूर्तत्व विशेषण देना आवश्यक होजाता है । मूर्त होते हुये अवयव सहितपन हेतु से अष्टाणूक, सप्ताणुक, पचाणूक, चतुरणक, त्र्यणुक, द्वघणूक, स्कन्धों का भेद होना साध दिया जाता है। पर्वत, घट, पट. ग्रादि का फटना, फूटना, तो प्रसिद्ध हो है, किन्तु परमाणू का सिद्धि कराने में विशेष उपयोगी नहीं है।
बात यह है, कि पर्वत आदि बड़े बड़े अवयवियों के टूटे फूटे हुये टुकड़े भी स्कन्ध रूप होते हैं, यद्यपि जैसे वस्त्र को फटकारने पर धूल झड़ जाती है, उसी प्रकार घट आदि के टूटे हुये भाग से अनन्त परमाणयें भी झड़ पड़तो हैं, तथापि उन स्थूल पिन्ड होरहे टुकड़ों की गणना में विचारी अतीन्द्रिय परमाणूत्रों को कौन पूछता है ?
अकृत्रिम चैत्याल्य, सूर्य, 'पर्वत, घट, पट, आदि अवयवियों से अनन्तानन्त परमाणुयें तो