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________________ पंचम - अध्याय दोनों के पिण्ड की एकत्व परिए ति कराने का हेतु होरहा है, उस प्रकार श्राकाश, श्रात्मा, या कालाों का मिथ: होरहा संयोग बेचारा उनकी पिण्ड वन्ध जाना स्वरूप एकत्व परिणति का कारण नहीं है, अन्यथा उन श्राकाश, श्रात्मा आदि द्रव्यों का भी मिल कर एक द्रव्य होजाने का प्रसंग आाजायगा जैसे कि दो परमाणुत्रों का मिल कर एक अशुद्ध द्रव्य द्वयक स्कन्ध बन जाता है । हां प्राकाश, श्रात्मा, आदिकों का केवल कोरा संयोग भले ही होजाय तो भी उस एक द्रव्यपन का प्रसंग नहीं आता है, जैसे कि पुरुष और उसके बिछाने के बिछौना या प्रासन का केवल संयोग बन्ध नहीं है । अर्थात- बन्धपरिरणति में दोनों या इससे अधिक द्रव्यों का एक रस होजाता है, जैसे कि कर्मों का संसारी जीव के साथ कथंचित एकीभाव होरहा है, हां कोरा संयोग होजाने पर आत्मा माका सिद्धों सिद्धों का अथवा काल प्रणुत्रों का मिथः एक रस नहीं हो पाता है । इतना अवश्य है, कि संयोग में भी अनेक विशेषतायें दृष्टि गोचर होरही हैं. देवदत्त के साथ होरहे भूषरण के संयोग से वस्त्र का संयोग विलक्षण है, वस्त्र के निमित्त से शरीर में उष्णता उपज जाती है, उष्ण वस्त्र के पहन लेने से और सौड के प्रोढ़ लेने से तो शरीर अधिक उष्ण होजाता हैं, भूषरणों से प्राभिमानिक सुन्दरता की कल्पना या धनिक-पन का गर्व भले ही उपज जाय किन्तु वह भूषरण के संयोग में पारिरामिक निमित्तता का ज्ञापक नहीं है और यदि किसी स्त्री को भूषणों से ही उक्त परिणाम उपज जाय तो चलो अच्छा हुआ वह भूषरणसंयोग भी विशिष्ट परिणतिका निमित्त समझा जायगा, मांगे हुये गहने या मुलम्मा के भूषणों का संयोग वैसी परिणति का कारण नहीं है । तथा मकराने की शिलाओं पर बंठने से या स्फटिक के स्पर्श से शीतलना उपजती है । हां मकराने के चौकों पर डाभ या पराल का आसन बिछा कर बैठने से शैत्य का प्रभाव अत्यल्प रह जाता है, ऊन या रूई के बने हुये वस्त्रों या श्रासनों से तो शरीर में उष्णता बढ़ जाती है । तथा कच्ची काली ईंट को पक्का और लाल कर देने वाला अग्नि-संयोग विभिन्न ही है, धीरे से मुक्के को हुआ देने की अपेक्षा बल पूर्वक छुना दिये गये मुक्के का संयोग विलक्षण है, कान के ऊपर बल से पुकारने करके शब्द द्वारा विशेष आधात प्रतीत होता है, केवल हस्त संयोग की अपेक्षा पूरे शरीर का संयोग विशिष्ट होरहा विलक्षण परिणति का उत्पादक है, माता अपने पुत्र के मस्तक का स्पर्श करती है, शिष्य गुरु जी के चरणों का अपने हाथों से स्पर्श कर संयोग करता है खाई गई औषधि और ई गई प्रौषधि में संयोग द्वारा अन्तर पड़ जाता है, रुपयों के साथ दूसरे रुपयों का संयोग निराला ही है, यों कार्यों के निमित्त हो रहे अथवा नहीं भी निमित्त हो रहे संयोगों के अनेक प्रकार हैं, तिस कारण से सिद्ध होजाता है, कि पुद्गलद्रव्यों का विशिष्ट संयोग होजाने पर बन्ध परिणाम होजाता है, अन्यथा यानी बन्ध हुये विना उन पुद्गलों को एकत्व परिणति नहीं होसकती है । भावार्थ- पुद्गल पुद्गलों का और जीवों के साथ पुद्गलों का ही बन्ध होता है, शेष चार यों में संयोग भले ही होय किन्तु बन्ध नहीं होने पाता है, क्योंकि बन्ध होजाने की अन्तरंग कारण २०६
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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