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श्लोक-वातिक
वैभाविक शक्ति का चार द्रव्यों में प्रभाव है, आत्मा के साथ होरहा कर्म, नोकर्म, का संयोग भो एकीभाव का सम्पादक होकर पुद्गलों का बन्ध कहा जा सकता है, भले ही वह बन्ध जीव द्रव्य का भी होय हमारे उक्त सिद्धान्त में यानी बन्ध पर्याय वाले पुद्गल स्कन्ध हैं, इस सिद्धान्त में कोई क्षति नहीं पड़ती है, पूर्व से बांधे गये कर्मों से जकड़ा हुआ मूर्त जीव ही तो पुनः मूर्त कर्मों से बधता है, अमूर्त शुद्ध जीव का किसी भी सजातीय, विजातीय द्रव्य के साथ बन्ध नहीं है, अतः मूर्त पुद्गलों का ही बन्ध होजाने के लिये बल दिया गया है ।
कस्यचिदवयवद्रव्यस्यैकम्मादनेकपुद्गल' रिणाम यासंभवादसिद्धस्तदेकत्व परिणाम इति चेन्न, तस्य प्राक् साधितत्वात् । जीवकर्म गोर्वधः कथमिति चेत्,परस्परं प्रदेशानुप्रवेशान्नत्वेकत्वपरिणामात्तयोरेकद्रव्यानु पत्तेः “चेतनाचेतनावेतौ बंध प्रत्येकतां गतो' इति वचनात्तयारे कत्वपरिणामहेतुर्व-धोम्तीति चेन्न, उपचारतस्तदेकत्वः चनाव । भिन्नो लक्षण तो यंतमिति द्रव्यभेदाभिधानात् । ततः पुद्गलानामेवैकत्वपरिणामहेतुबंध ति प्रति त्तव्यं वाधक भा व स च स्कंधधर्म एव ।
___ कोई पण्डित बौद्ध मत अनुसार आक्षेप करता है, कि किसी एक अवयव से अन्य किसी एक अवयव द्रव्य का सयोग होकर पुनः अनेक पुद्गलों करके बन रहे एकत्व परिणामका असम्भव है, अतः दो आदि द्रव्यों की एकत्व परिणति होना प्रसिद्ध है, दो, तीन आदि द्रव्य यदि मिलकर एक अशुद्ध द्रव्य बनने लगें तो यों उन्नति करते करते जगत् में एक ही द्रव्य का अद्वैत छाजायगा, भेद व्यवहार सब लुप्त होजायंगे किन्तु द्रव्य अवस्थित माने गये हैं, दो का एक बनाना प्रकृति मर्यादा से भी अलीक है, ग्रन्थकार कहते हैं, कि यह तो नहीं कहना क्योकि उस अनेकों के एकत्व परिणाम स्वरूप अवयवी को पूर्व प्रकरणों में साधा जा चुका है, यहां पुन: उस प्रक्रिया को दुहराना पुनरुक्त पड़ेगा, अतः “सन्तोष्टव्यं आयुष्मता" । अब पुद्गलों के ही पर्याय होरहे बन्ध का निर्णय होजाने पर कोई प्रश्न उठाता है, कि जीव और कर्मोंका बन्ध भला किसप्रकार होरहा कहा जा-गा? बतायो। यों कहने पर आचार्य कहते हैं, कि क्षीर नीर न्याय अनुसारं जीव और कर्म नोकर्मों का मात्रपरस्पर में अनुप्रवेश होजाने से उनका बन्ध होजाता है, दोनों द्रव्यों के एकत्व परिणाम का हेतु होरहा बन्ध इनका नहीं होता है, क्योंकि सजातीय पुद्गल पुद्गलों का एकत्व परिणाम होकर एक द्रव्यत्व भले ही होजाय किन्तु विजातीय होरहे जीव और पौद्गलिक कर्म नोकर्मों का बंध कर एक द्रव्य हो जाना नहीं बन सकता है।
यदि कोई पण्डित जैनों के ऊपर यों ग्रन्थ विरोध या अपसिद्धान्त की बौछार डाले कि जैनों के यहां ग्रन्थों में ऐसा वचन है, कि चेतन अचेतन ये दोनों द्रव्य बेचारे वैभाविक शक्ति या मिथ्यात्व, योग आदि द्वारा हुये बन्ध के प्रति एकपन को प्राप्त होचुके हैं, अतः इस वचन अनुसार जीव और कर्म नोकर्मों के एकत्व परिणति का हेतु होरहा बंधपरिणाम सिद्ध है । प्राचार्य कहते हैं, कि यह