SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 325
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्लोक- वार्तिक या विभाग को पदार्थोंका वस्तुभूत परिणाम कहना ही पड़ता है। देखिये ऐसा प्रमाण - श्रात्मक प्रत्यभिज्ञान होता है कि दोनों की उपलब्धि होने पर जो ही दो द्रव्य पहिलेसे संयुक्त थे वे ही दोनों द्रव्य वर्तमान समय में तो विभक्त होरहे देखे जा रहे हैं, इस स्थान पर जो कोई नवीन परिणति है वे ही वास्तविक संयोग या विभाग परिणाम हैं। संयोग या विभाग अवस्था में संयोग और विभाग के श्राश्रय होरहे पति पत्नी, या माता पुत्र, आदि द्रव्यों की तो अवस्थिति पूर्ववत् सिद्ध है तभी तो एकत्व प्रत्यभिज्ञान होसकता है, अतः हर्ष या विषाद के उत्पादक संयोग या विभागके पर्यायों की विशिष्टता उन द्रव्यों में माननी पड़ती है । १०५ यह प्रत्यभिज्ञान प्रमाण नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष जैसे अपने विषय में प्रमाण माना गया है। उसी प्रकार प्रत्यभिज्ञान का भी अपने नियत विषय में प्रमारणपने करके पहिले समर्थन किया जा चुका है "मतिः स्मृतिः संज्ञाचिन्ताभिनिवोध इत्यनर्थान्तरम्" इस सूत्र का विवरण देख लिया जाय । नन्वेवं प्रसिद्धोपि संयोगः कथं व्योमात्मादिष्वसभवी विशेषपुद्गलेषु सिद्धयेद्यतो बन्धः पुद्गलानामेव पर्यायः स्यादिति चेत्, तदेकत्वपरिणामहेतुत्वात्तस्य विशिष्टत्वसिद्धिः सक्ततोयादिबंधवत् । नहि यथा सत्तुतोयादीनां संयोगः पिण्डैकत्वपरिणामहेतुस्तथा व्योमात्मादीनां तेषामेकद्रव्यत्वप्रसंगात् । संयोगमात्रे तु सत्यपि न तत्प्रसंग: । पुरुषतदस्तरणवत् । ततोस्ति पुद्गलानां बंधस्तदेकत्वपरिणामान्यथानुपपत्तेः । । यहां कोई प्रश्न करता है, कि इस प्रकार प्रत्यक्ष प्रमाण या समीचीन युक्तियों से प्रसिद्ध कर दिया गया भी संयोग भला श्राकाश, आत्मा, आदि में नहीं सम्भव होरहा केवल विशिष्ट पुद्गलों में ही किस प्रकार सिद्ध होसकेगा ? बताओ जिससे कि वह संयोग दोनों की गुणच्युति स्वरूप अवस्था को प्राप्त होकर बन्ध नाम को पा रहा सन्ता पुद्गलों की ही पर्याय होके जो कि सूत्रकार द्वारा कहा गया है । अर्थात् संयोग तो आकाश और श्रात्मा का भी है, काल अणुओं का भी परस्पर संयोग है, पुद्गल का भी शुद्ध द्रव्यों के साथ संयोग होरहा है, एतावता ही किसी चमत्कार पर संयोग विशेष को बन्ध मान लेना और उस बन्ध को पुद्गल द्रव्यों का ही परिणाम कहे जाना, ये दोनों बातें कैसे सिद्ध करोगे ? ग्रन्थकार कहते हैं, कि यों कहने पर तो हम कहेंगे कि एकम-एक होजाना स्वरूप परिणाम का हेतु होजाने से उस संयोग की विलक्षणता सिद्ध है, जैसे कि दो बतनों में न्यारे न्यारे रक्खे हुये सतुद्मा और जल का पुनः एक कटोरे में संयोग होजाने पर पश्चात् दोनों का एक रस होजाने के कारण घोले गये सतुमा प्रर पानी की बन्ध परिणति ही संयोग की विशिष्टता है, दाल और उसमें डाले हुये मसाले या खोश्रा और बूरा का संयोग कर बने हुये पेड़ा एवं शोशी में संयुक्त होरहे विष और पी लिये गये विष श्रादिमें संयोग परिणति से हुई बन्ध परिणति न्यारी प्रतीत हो रही है, वहबंध पर्याय इन श्रात्मा, चाकाश, आदि द्रव्योंमें नहीं पायी जाती है, देखिये सतुमा पानी, या दूध, बूरा, प्रादिका संयोग जिस प्रकार
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy