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श्लोक-पातिक
है। सत्य बात यह है कि लोक में अथवा शास्त्र में अर्थ की प्रतिपत्ति कराने के लिये वाक्य ही प्रयोग करने योग्य है, अकेला पद कुछ भी व्युत्पत्ति नहीं कर पाता है । मीमांसक जैसे वर्ण को अनंश मानते हये पद को भी निरंश स्वीकार कर लेते हैं इसकी अपेक्षा वाक्य को ही निरंश स्वीकार कर लेना अच्छा जंचता है अर्थमें प्रवृत्ति या निवृत्ति होजाना वाक्य द्वाराही संपाद्य कार्य है वही ग्रन्थोंमें यों कहा जा चुका है कि किन्हीं पण्डितों ने पद के दो भेद कर दिये हैं " सुप्तिङन्तं पदं " देव.: सर्वस्मै, नद्यां, आदि सुवन्त विभक्ति याले और पचति गमिष्यति, पिपठिषतु, आदि मिङत या तिडेन्त विभक्ति वाले यों दो प्रकार पद हैं किन्हीं विद्वानों ने पदों के चार प्रकार भेद किये हैं नाम, पाख्यात, निपात, कर्मप्रवचनीय, ये चार भेद हैं जिन, चन्द्र, गंगा, ज्ञान. विद्वम्, स्रज, आयुष, नदी, नीलोत्पल, सौध, आदि शब्द तो नाम पद हैं।
पचति, क्रीणाति, पिपतिषति, रोरुच्यते, बोभोति पुत्रीयति कण्डूयति. पराजयते, उपरमति उच्यते, नीयते, स्थालीपचति. प्रादिक शब्द प्राख्यात पद हैं । अहो. ई उच्चस्. नत्र , अादिक निपात पद हैं, लक्षणद्योतक ग्रनु, अधिकद्योतक उपलक्षणद्योतक प्रति, परि आदिक निपात ही कर्मप्रवचनीय इस संज्ञा को धार लेते हैं । अथवा कोई कोई पद को पांच प्रकार भी स्वीकार करते हैं, पदों के उक्त चार भेदों में प्र, परा, उप, सम्, आदि उपसर्ग नामक भेद को बढ़ा देने पर पांच प्रकार के पद समझ लिये जाते हैं, जाति शब्द. गुणशब्द, क्रियावाचक शब्द, संयोगी द्रव्य शब्द, समवायी द्रव्य शब्द, कोई यों भी वाचक शब्द के पांच भेद कर लेते हैं पदों के प्रकार कितने भी मान लिये जानो सिद्धान्त का विरोध नहीं आना चाहिये।
बात यह है कि कि जैसे अखण्ड पद में से प्रकृति, प्रत्यय, विकरण, प्रादि का पृथग्भाव कल्पित कर लिया जाता है उसी प्रकार अखण्ड वाक्य से पृथग्भाव को कल्पना कर ही क्रियापद, कारकपद, न्यारे न्यारे गढ़ लिये जाते हैं तिस कारण सिद्ध होजाता है कि पद जैसे स्वकीय अवयव होरहे प्रकृति, प्रत्यय, आगम,प्रादि कल्पित खण्डोंसे कथंचित् भिन्न है कथंचित अभिन्न है,प्रतीतियोंके अनुसार निर्णीत कर लिया गया ऐसा पद स्वीकार कर लेना चाहिये किन्तु फिर प्रकार प्रादि वर्ण के समान सर्वथा प्रशोंसे रहित पद नहीं माना जाय क्योंकि सभी प्रकारोंसे अंश रहित पदके ग्राहक प्रमाणोंका प्रभाव है तथा उसी पद के समान वाक्य भी अपोद्धृत पदों से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न होरहा ही प्रतीतियों के समुचित स्थान पर आरूढ़ होरहा स्वीकार कर लेना चाहिये, व्यर्थका वाग्जाल उपयोगी नहीं है।
तच्च द्रव्यरूपं भावरूपं वा एकानेकस्वभावं चिंतितप्रायमिति स्थितमेतच्छब्दवतः पुद्गला इति । शब्दस्य वर्णपदवाक्यरूपस्यन्यम्य च पुद्गलस्कन्धपर्यायत्वसिद्धेशकाशगुणवे. नामूर्तद्रव्यत्वेन स्फोटात्मतया वा विचार्यमाणस्यायोगात् ।