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________________ चम-अध्याय ३०३ ' तथा वह वाक्य द्रव्य स्वरूप और भावस्वरूप यों दो प्रकार का है जो कि एक स्वभाव और अनेक स्वभावोंके साथ तदात्मक होरहा है। पूर्व प्रकरणों में बहुत बार हम इसका चिन्तन कर चुके हैं यहां प्रकरण बढ़ाना द्विरुक्त, त्रिरुक्त पड़ेगा, इस कारण युक्तियों से यह सिद्धान्त अब तक व्यवस्थित हो चुका है कि शब्द पर्यायवाले पुद्गल द्रव्य हैं । अकार, इकार, टकार, प्रादि वर्णस्वरूप शब्द या शीतल श्रयान्, जानाति, आदि पदस्वरूप तथा देवदत्तः पठति, जिनदत्तो ग्राम गच्छति, प्रादि वाक्य स्वरूप अथवा अन्य भी मेघध्वनि, समुद्रगर्जन, वादिननाद, आदि कोई भी शब्द क्यों न होंय उन सभी शब्दों को स्कन्ध-प्रात्मक पुद्गल द्रव्य का पर्यायपना, सिद्ध हो जाता है, अाकाश का गुण होकरके अथवा अमूत द्रव्यपने करके तथा स्फोट-प्रात्मक स्वरूप करके शब्द के विचार किये जाने पर आकाशगुणत्व आदि स्वरूप की घटना नहीं होपाती है अर्थात्-वैशेषिकों के मन्तव्य अनुसार शब्द आकाश का गुण नहीं सध पाया है। शब्दाद्वैतवादी या वैयाकरणों के प्रभिप्राय अनुसार शब्द प्रमूत द्रव्य भो नहीं सध सका है, एवं वैयाकरणों के विचार अनुसार शब्द बेचारा नित्य निरंश, स्फोट-प्रात्मक भी नहीं सिद्ध होसका है। ... परमार्थ रूप से विचार होचुकने पर भाषा वगणायें या शब्दयोग्य पुद्गल वगणायें इन विशेष पुद्गल स्कन्धों को पर्याय होरहा शब्द सिद्ध होजाता है, जैसे कि मनुष्य, तिर्यंच, आदि जीवों का शरीर आहार वर्गणाओं से बन जाता है। तीन लोक में भरी हुई पुद्गल की सख्यातवर्गणा आदि बाईस वर्गणायें और अणुऐ इनमें से किसी का भी वहिरंग इन्द्रियोंसे प्रत्यक्ष नहीं हापाता है, फिर भी कौर, दूध, वायु, जल, इन में दृश्यमान प्राहार्य पदार्थों में बहुभाग अतोन्द्रिय पाहार वर्गणायें पायों जा रहीं मानी जाती हैं, इसो प्रकार जगत् में सर्वत्र शब्द-परिणति-योग्य वगंणायें भर रहीं हैं, फिर भी वक्ता के मुख प्रदेश या फोनोग्राफ को चूड़ो विशालप्रासाद, विद्युत्प्रवाह द्वारा शब्दों को ले जाने वालों तारों के आधार होरहे पोले खम्भे आदि स्थानों पर बहुभाग शब्द योग्य पुद्गल स्कन्धों का सद्भाव माना जाता है, द्रव्यवाक्य और भाव-वाक्य दानों पौलिक हैं, उपादान पुद्गल स्कन्धों से द्रव्य वाक्य बनाने का निमित कारण हारहे तथा उस वार्यान्त राय, मतिज्ञानावरण, श्र तज्ञानावरण कर्मों के क्षयोपशम और अंगोपांग नामकर्म के उदय से आविष्ट हारहे क्रियावान् आत्मा के प्रपत्नविशेष या लब्धि विशेषको भाववाक या भाववाक्य मानते हये पौलिक कह सकते हैं,यहां तक विस्तार पूर्वक पौलिक शब्द का अच्छा समर्थन कर दिया है। कः पुनर्बन्धः १ पुद्गलपर्याय ए प्रसिद्धो येन बंधवन्तः पुद्गला एवं स्युरित्यारेकायामिदमाह। "शब्दबंध" आदि इस सूत्र के "शब्द" का विवरण हो चुका है, अब विनीतशिष्य क्रम अनु‘सार प्राप्त हुये बंध की ज्ञप्ति करने के लिये प्राचाय महाराज के प्रति प्रश्न उठाता है, कि महाराज यह बतानों कि वह इससे अंगला फिर बन्ध क्या है ? जो कि पुद्गल पयाय हो प्रसिद्ध मान लिया जाये
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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