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श्लोक-पातिक
देन विना यस्याननुभावकता भवेदाकांक्षा" जिस पद के बिना जिस पद को अन्वयबोध कराने की अनुभावकता नहीं होपाती है, उस पद की उस पद के साथ प्राकांक्षा मानी जाती है, जैसे कि कारक पद को क्रिया पद की आकांक्षा है. “वक्तुरिच्छा तु तात्पर्य परिकीर्तितं" वक्ता की इच्छा तो तात्पर्य माना गया है। तथा जाति और प्राकृति से विशिष्ट होरही व्यक्ति स्वरूप पदार्थ के साथ पद का वाच्य वाचक सम्बन्ध तो अभिधा शक्ति है, अन्वयानुपपत्ति या तात्पर्यानुपपत्ति से सम्भाव्य अर्थ का शक्य अर्थ के साथ सम्बन्ध होजाना लक्षरगा है।
प्रकरण में यह कहना है, कि पदों से भिन्न यदि कोई वाक्यार्थ नहीं है, तो प्रकृति, प्रत्ययों से निराला कोई पद भी नहीं है, भट्ट और प्रभाकर दोनों के विचार अनुसार पदार्थ की प्रतिपात्त होजाना सध जाता है भिन्न भिन्न श्रोताओं को अनेक प्रकार शाब्दबोध होरहे हैं, कहां तक सूक्ष्मता को विचारोगे, व्यर्थ का अड़वंगा लगाना अनुचित है :
स्यान्मतं पदमेव लोके वेदे वार्थ-प्रतिपत्तये प्रयोगाहं न तु केवला प्रकृतिः प्रत्ययो वा पदादपोद्धृत्य तद्व्युत्पादनार्थ यथाकथंचित्तदभिधानात्तत्वतस्तदभावः । तदुक्तं । अथगोरित्यत्र कः शब्दः ? गकारोकारविसजनीया इति भगवानुपवर्ष इति । यथैव ही वर्णोनंशः प्रकल्पितमात्राभेदस्तथा गौरिति पदमप्यनंशमद्धृत्य गकारादिभेदं स्वार्थप्रतिपत्तिनिमित्त भवसीयते इति ।
यदि मीमांसकों का यह भी मन्तव्य होय कि लोक में अथवा वेद में अर्थ की प्रतिपत्ति कराने के लिये पद का ही प्रयोग करना योग्य है, केवल भू पच्, देव, घट, आदि कोई प्रकृति अथवा सु, तिप, अण, प्रादि कोई भी प्रत्यय तो अकेली नहीं बोली जा सकती है, हां पद से वे प्रकृति, प्रत्यय, विकरण, उपसर्ग, आदिक यद्यपि अभिन्न हैं फिर भी उस पद की व्याकरण शास्त्र द्वारा निष्पत्ति कराने के लिये या बालकों को व्युत्पत्ति कराने के लिये जिस किसी प्रकार उन केवल प्रकृतियों या केवल प्रत्यय को कह दिया जाता है । अर्थात्-पच् धातु से तिप् प्रत्यय लगाकर शप विकरण करने पर पचति पद साधु बन जाता है । "राज्ञः पुरुषः" ऐसा विग्रह किया पुनः षष्ठी तत्पुरुष समास करते हुये विभक्तियों का लोप कर पश्चात् मृत् संज्ञा कर सु विभक्ति लाकर राजपुरुषः बना लिया जाता है । "स्त्यै शब्द संघातयोः" या स्तुत्र आच्छादने धातुसे ड्रट प्रत्यय कर पुनः टित्वात ङी प्रत्यय कर स्त्री शब्द निष्पन्न होजाता है । इत्यादि व्यवस्थायें व्याकरण शास्त्र की प्रक्रिया अनुसार मात्र व्युत्पत्ति करा देने के लिये हैं, वस्तुतः विचारा जाय तो शब्द प्रथमसे ही अखण्ड होकर सिद्ध हैं पाषाण में उकेरी गई प्रतिमा के अंगोपांग कोई न्यारे न्यारे बना कर नहीं जोड़ दिये जाते हैं
पाप जैनों के यहाँ भी गुणनन्दि प्राचार्य ने जैनेन्द्र प्रक्रिया में मिङधिकार का प्रारम्भ करते हेये “अथ भवामीत्येवमादिकस्य सामान्याकारेण लोके प्रसिद्धरनुत्पादविगमात्मकत्वादनित्यतामवलम्बमानस्यान्वाख्यानाय विशेषाकारेण करणसन्निपातोपनीतोत्पादविगमात्मकत्वादनित्यतामादधान