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________________ २९८ - इलोक-वातिक तिक अन्वित होरहे ही पदार्थों का अभिधान किया जाना पक्ष सुन्दर नहीं है । प्रकरण में यह कहना है, कि प्रतिपाद्य या प्रतिपादक की बुद्धि में अन्वित होरहे पदार्थों का अभिधान प्रतीत नहीं होरहा है, हां अभिहितों का अन्वय कुछ प्रतीत होता है, इस अवसरको अच्छा पाकर झट अन्य विद्वान् भट्ट बोल उठे हैं कि आपको धन्यवाद है, अभिहितान्वय पक्ष अच्छा है। अब प्राचार्य कहते हैं, कि उन भट्टानुयायी पण्डितों के यहाँ भी · देवदत्त गामभ्याज शुक्ला दण्डेन" इस प्रयोग में देवदत्त आदि पदों करके कहे जा चुके पदार्थ क्या अन्य किसी एक शब्द करके परस्सर अन्वित कर दिये जाते हैं ? अथवा क्या वे पदर्थ श्रोता की बुद्धि करके ही परस्पर में अन्वित यानी शृङ्गलाबद्ध कर लिये जाते हैं ? बतायो इन में पहिला पक्ष तो ठीक नहीं है क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थों को विषय करने वाले किसी एक अन्य शब्द को इष्ट नहीं किया गया है, अर्थात्-वाक्य में पड़े हुये सभी कारकवाची या क्रिया-वाची शब्द नियत जड़े हुये हैं, अभिहित पदार्थों के अन्वय मिला देने का कारण होरहा कोई शब्द जाना नहीं जाता है, हाँ द्वितीय पक्ष का अवलम्ब लेने पर तो बुद्धि ही बाक्य पड़ता है, मनेक पद तो फिर कथमपि वाक्य नहीं हो सकते हैं, क्योंकि उस बुद्धि से ही वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति हुई है, पदों से नहीं। भाट्टों के यहां अभिहितान्वय करने वाला पदार्थ तो बुद्धि ही नियत रहा। .. ननु पदार्थेभ्योपेचाबुद्धिसंनिधानात्परस्परमन्वितेभ्यो वाक्यार्थप्रतिपत्तेः परंपरया पदेभ्य एव भावान्न ततो व्यतिरिक्तं वाक्यमस्तीति चेत, तर्हि प्रकृतिप्रत्ययेभ्यः प्रकृतिप्रत्ययार्थाः प्रतीयंते तेभ्यापेक्षाबुद्धिसनिधानादन्योन्यमन्वितेभ्यः पदार्थप्रतिपत्तिरिति प्रकृत्यादिव्यतिरिक्त पदमपि मा भूत, प्रकृत्यादीनामन्वितानामभिधाने वाभिहितानामन्वये पदाथप्रतिपत्तिसिद्धः । भाट्टों की ओर से स्वपक्ष का अवधारण किया जाता है, कि आसत्ति, योग्यता, आकांक्षा, तात्पर्य, अनुसार परस्पर अपेक्षा रखरहे पदों को अपेक्षाबुद्धि का सन्निधान होजाने से परस्पर में अन्वित होरहे पदार्थों से जो वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति हुई है, उस वाक्यार्थ ज्ञान की उत्पत्ति सच पूछो तो परम्परा करके पदों से ही हुई है, क्योंकि पदों से ही पदार्थों की प्रतिपत्ति होते हुये वाक्यार्थ ज्ञान हुआ था अतः उन पदों से अतिरिक्त कोई बुद्धि या अन्य पद वाक्य नहीं समझा जाय । यों कहने पर हम जैन कहेंगे कि तब तो प्रकृति या प्रत्ययों से जो प्रकृति और प्रत्ययों के अर्थ प्रतीत होरहे हैं वे ही तो अपेक्षा बुद्धि का सन्निधान होजाने से परस्पर में अन्वित होरहे उन प्रकृति और प्रत्ययों से उपज रहे पदार्थ की प्रतिपत्ति हैं, इस कारण प्रकृति, प्रत्यय, आदि से भिन्न कोई पद भी नहीं होनो क्योंकि प्राभाकरों के मतानुसार प्रथम से ही अन्वित होचुके प्रकृति आदिकों के प्राभधान करने पर अथवा भट्ट मतानुसार प्रथम से ही स्वकीय अर्थ सहित कहे जा चुके प्रकृति आदिकों का अन्वय कर लेने पर पदार्थ की प्रतिपत्ति होना प्रसिद्ध है। अर्थात-भाट्टों द्वारा बुद्धि से अतिरिक्त पदों को हो वाक्य मानने का रक्षा की जायेगी तो
SR No.090500
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 6
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1969
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size23 MB
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