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लोक-बाटिक
वही दोष कई वार प्रावृत्ति से पदार्थों की प्रपिपत्ति होते रहने का प्रसंग पाजावेगा जैसे कि वो से अभिव्यंग्य होरहे पद-स्फोट, को कहने वाले वादी वैयाकरण पण्डित के यहां प्राबृत्ति से पदार्थों की प्रतिपत्ति होजाने का प्रसंग पूर्व में मीमांसकों द्वारा दिया जा चुका है। अर्थात्-तथा सत्यावृत्या सत्या पदार्थ प्रतिपत्तिप्रसंगः आदि ग्रन्थ से जो आपने कहा था उसका प्रतिफल तुम भी झेलो।
___किंच, विशेष्यपदं विशेष्यविशेषणसामान्येनान्वितं विशेषणविशेषेण वाभिधत्ते तदुभयेन वा ? प्रथमपचे विशिष्टवाक्यार्थप्रतिपत्तिविरोधः। परापरविशेषणविशेष्यपदप्रयोगात्तदविरोध इति चेत्, तह-अभिहितान्वयप्रसंगः ।
अन्विताभिधान-वादी प्राभाकर को दूषण देते हुये हम जैनों को एक बात यह भी कहनी है कि “देवदत्त गामाभ्याज शुक्लां दण्डेन" ऐसे प्रयोगों में शुक्लां विशेषण से युक्त होरहा गां यह विशेध्य पद क्या सामान्य रूप से शुक्ल विशेषण से अन्वित होरहे गाय नामक विशेष्य को कह देता है ? अथवा गां यह विशेष्य पद क्या विशेष ( खास ) विशेषण से अन्वय प्राप्त होचुके गाय विशेष्य को कह रहा है ? किं वां विशेष्य पद उन सामान्य स्वरूप और विशेष स्वरूप दोनों रूप विशेषणों करके अन्वित होरहे विशेष्य गाय का कथन करता है ? बतायो । अन्विताभिधान-वादी यदि पहिला पक्ष ग्रहण करेंगे तब तो वाक्य द्वारा सामान्य विशेषणसे युक्त होरहे विशेष्यकी प्रतीति होगी। उस वाक्य के द्वारा किसी प्रतिनियत विशेषण से विशिष्ट होरहे प्रथ की प्रतिपत्ति होने का विरोध होजायेगा जैसे कि सूखा, रूखा, सामान्य भोजन करने वाला पुरुष विशिष्ट होरहे छत्तीस भोजनों का भोगी नहीं कहा जा सकता है।
यदि वे प्राभाकर पण्डित यों कहें कि विशेषणों के उत्तरोत्तर विशेष अंशों को कहने वाले विशेषण वाचक पदों और इने गिने पर अपर विशेष्य को कहने वाले विशेष्य पद का प्रयोग कर देने से उस विशिष्ट वाक्याथ की प्रतिपत्ति हो जाने का विरोध नहीं पाता है । यों कहने पर तो हम जैन कहेंगे कि तब तो तुमको शब्दों करके अभिधावृत्ति द्वारा कहे जा चुके ही अर्थों के साथ अन्य पदार्थों के अन्वय करने का प्रसग अावेगा, ऐसी दशा में प्राभाकरों के यहां स्वार्थ के साथ शब्द का अभिधान व्यापार होरहा और पदान्तरों के अर्थ के साथ गमकत्व व्यापार होरहा सन्ता अन्वितपना रक्षित नहीं रह सका प्रत्युत भाट्टों का अन्विताभिधान-वाद सिद्ध होगया।
द्वितीयपक्षे पुनः निश्चयासंभवः प्रतिनियतविशेषणस्य शब्देनानिर्दिष्टम्य स्वोक्तविशेष्येन्वयसंशीतेर्विशेषणांतगणामपि सम्भवात् । वक्तुरभिप्रायात् प्रतिनियतविशेषणम्य तत्रान्वयनिर्णय इति चेन्न, यं प्रति शब्दांच्चारणं तस्य तदनिर्णयादात्मानमेव प्रतिवक्तः शब्दोच्चारणानर्थक्यात् ।
प्राचार्य कहते हैं कि वे प्राभाकर पण्डित यदि दूसरा पक्ष ग्रहण करेंगे यानी किसी विशेष विशेषण से अन्वित होरहे विशेष्य वाचक शब्द द्वारा कहा जाना इष्ट करेंगे, तब तो फिर वाक्यार्थ