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पंचम-अध्याय
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अर्थात्-वाक्य के क्रम में उच्चारे गये या मीमांसकों के मत अनुसार क्रम से प्रकट किये गये शब्द सभी एक ही काल में तो सुने नहीं जा सकते हैं। आगे पीछे के उच्चारे गये शब्दों का अन्वय करना ही पड़ता है, कहीं कहीं तो "पुष्पेभ्यः" कह देने से ही स्पृहयति क्रिया को विना कहे ही जान लेना पड़ता है “गंगायां घोषः" का अर्थ तीर शब्द के विना ही 'गंगा के तीरमें' घोष करना पड़ता है, किसी श्लोक में क्रिया का उच्चारण नहीं मिलने पर क्रिया से कर्ता का प्राक्षप कर लिया जाता है, क्वचित्-कर्ता से क्रियाको गम्यमान कर लेते हैं, 'द्वार' कहने पर पिधेहि पद का अध्याहार होजाता है, “गौ र्वाहीकः, अन्नं वै प्रारणाः, पितरो, श्वसुरौ,, अथवा “गच्छ गच्छसि चेत् कान्त पन्थानः सन्तु ते शिवाः । ममापि जन्म तत्र व भूयाद्यत्र गतो भवान्” आदि स्थलोंपर लक्षणा, प्रासत्ति, व्यंजना, उपचार आदि प्रक्रिया अनुसार जो गम्यमान अर्थ किये जाते हैं,वे कश्चित् विद्वान्के मत अनुसार वाक्यार्थ नहीं समझे जासकेंगे।
__द्योत्यविषयभूतयोरपि वाच्यत्वात् शब्दमूलत्वात् वाक्यार्थावबोधः । शाब्द इति चेत्, तत एव गम्यमानोर्थः शब्दस्यास्तु, पादपशब्दोच्चारणानंतर शाखादिमदर्थप्रतिपत्तिवत्तत्स्थानाधर्थस्यापि गतेरिति स एवावृत्त्या पदार्थप्रतिपत्तप्रसंगोन्विताभिधानवादिनः पदस्फोट
वादिवत् ।
यदि कोई विद्वान् यों कहें कि स्यात्, एव, च, चेत्, आदिक निपात शब्दों को कोई कथंचित् अवधारण, समुच्चय, पक्षान्तर आदि अर्थों का वाचक नहीं मानकर उन अर्थों का द्योतक स्वीकार करते हैं, "द्योतकाश्च भवन्ति निपाताः" ऐसा वचन है। "स्यादस्ति जीव:" यहाँ अस्ति शब्द का अर्थ ही कथंचित् अस्ति है फिर भी स्याद्वाद नीति में कुशल नहीं होरहे प्रतिपाद्य के लिये प्रयोक्ता को स्यात् शब्द कहना ही पड़ता है यों द्योत्य भी शब्द का अर्थ माना जाता है, इसी प्रकार कहीं विषय भूत यानी साध्य हो चुका अर्थ भी शब्द का वाच्य मान लिया जाता है, जैसे कि अनुक्त मतिज्ञान में बिना कहे ही शब्दों के अर्थ ज्ञात कर लिये जाते हैं । लक्ष्यार्थ या व्यंग्यार्थ भी शब्दों द्वारा कहे गये हैं:, अतः वाक्य के अर्थ में पडे हुये द्योत्य और विषय-भूत अर्थ भी शब्द को मूल कारण मान कर ज्ञात हुये होजाने से शब्द के वाच्य समझे जायेंगे तब तो उच्चायमाण शब्दों से ही अध्याहार, उपस्कार, स्मरण, लक्षणा, व्यंजना, संकेत-स्मरण, आकांक्षा, प्रादि अनुसार हुआ वाक्यार्थज्ञान शाब्द ही कहा जायेगा।
यों कहने पर तो अन्विताभिधान-वादी प्राभाकर कहते हैं, कि तिस ही कारण यानी द्योत्य या विषयभूत को भी शब्द का वाक्य मान्य कर लेने से अर्थापत्त्या या उपस्कार द्वारा जाना गया गम्यमान अर्थ भी शब्द का वाच्यार्थ होजामो ऐसी दशा में पादप शब्द के उच्चारण पश्चात् हुई शाखा पत्ता आदि वाले अर्थ की प्रतिपति के समान ठहर रहा, कम्प रहा, आदि अर्थों की भी बिना कहे ही ज्ञप्ति होजायगी। अब आचार्य कहते हैं। कि यों इस कारण अन्विताभिधानवादी पण्डित के ऊपर